हम सब बचपन से सुनते आ रहे है कि “अतिथि देवो भव “ मन में विचार आता होगा एसा क्यों कहा गया ,बात गहरी न होती तो क्यूँ कहता मित्र आज आप समझ जाओ...
हम सब बचपन से सुनते आ रहे है कि “अतिथि देवो भव “ मन में विचार आता होगा एसा क्यों कहा गया ,बात गहरी न होती तो क्यूँ कहता मित्र आज आप समझ जाओगे
घर में आए मेहमान को देव तुल्य क्यू माना जाता है।
उपनिषद महाभारत आदि ग्रंथो में प्रमाण मिलते है कयी कथाओं में
आपको पता है क्यू कहते है अतिथि देवो भव:
क्यों मानते है आतिथि को देवता
उपनिषत वाक्य “आतिथि देवो भव”का अर्थ है अतिथि देव स्वरूप होता है |उसकी सेवा देव पूजा फलती है |सूतजी के अनुसार अतिथि सत्कार से बड़कर कोई दूसरा पुरुषार्थ नही है ,अतिथि से बढकर कोई दूसरा देव हमे वह पुन्य नही दे सकता ये देवो के आशीर्वाद से भी बढकर है |
द्वार पर आये अतिथि का यथा योग्य सत्कार करना हमारी परम्परा में कर्तव्य ही नही धर्म है |हमारी संस्कृति में अतिथि सत्कार को यज्ञ कहा गया है ,इसे सम्पन्न करना प्रत्येक गृहस्थ के दैनिक जीवन का अंग मन गया है और इसकी गणना पञ्च महा यज्ञ में होती है |इस सत्कार में अतिथि का वर्ण ,आश्रम ,अवस्था ,योग्यता का विचार नही करना चाहिये बल्कि उसे तो पूज्य ही मानना चाहिए |
विश्व के सम्पूर्ण देशो का भ्रमण करने के पश्चात् आप को अतिथि सत्कार की परम्परा एवम भावना आपको केवल भारत में ही मिलती है |
अतिथि के लक्षण बताते हुए महर्षि शातातप {लघु शातातप ५५ }कहते है कि जो बिना किसी प्रयोजन के ,बिना निमंत्रण के ,किसी भी समय ,किसी भी स्थान से घर में उपस्थित हो जाये उसे अतिथि रूपी देवता समझना चाहिए |जिसके आगमन की सुचना पूर्व में ज्ञात हो वो अतिथि नही कहा जा सकता है |
महाभारत ,उद्योगपर्व में महात्मा विदुर ध्रितराष्ट्र से कहते है –
पीठं दत्त्वा साधवेभ्यागताय आनीयापःपरिनिर्रीज्य पादौ |
सुखं पृष्टवा प्रतिवेद्यात्मसंस्था ततो दद्यादन्नमवेक्ष्य धीरः ||
अर्थात हे राजन! धीर पुरुष को चाहिए कि जब कोई सज्जन अतिथि रूप में आये ,तो पहले उसे आसन देकर पाद प्रक्षालन करे ,फिर उसकी कुशलता पूछे ,आने का परोजन आदि जानकर फिर अपनी स्थिति बताये |तदुपरांत उसको भोजन आदि करवाए |
वेदों में कहा गया है कि
अतिथि सत्कार करने वालो के समस्त पाप धुल जाते है {अथर्ववेद9/7/8}
यद् वा अतिथिपतिरतिथिन प्रतिपश्यति देवयजनं पेक्षते | {अथर्ववेद 9/6/3}
अर्थात द्वार पर आये हुए मेहमान का स्वागत करना, उनको भोजन खिलाना ,सेवा करना देवताओ को आहुति देने से बढकर है |
महाभारत के वन पर्व 200/23-24 में कहा गया है कि-जो व्यक्ति अतिथि को चरण धोने के लिए जल ,पैरो के मालिश हेतु तेल ,प्रकाश हेतु दीपक ,उदर पूर्ति हेतु अन्न ,रहने हेतु निवास देते है वे कभी यम द्वारा प्रताणित नही किये जाते है |
ऋषियों ने कहा है की अतिथि को आसन देने से ब्रह्मा जी प्रसन्न होते है ,हाथ धुलने से शिव जी ,पैर धुलाने से इन्द्रादि देवता ,भोजन करने से भगवान् विष्णु प्रसन्न होते है |इसी कारण एक अतिथि की सेवा करने मात्र से सम्पूर्ण देवताओ का पूजन हो जाता है |अतः हमे सदैव अतिथि सत्कार पूर्ण अंतरमन से समर्पण के साथ करना चाहिए |
मनुस्मृति 3/106में कहा गया है –कि गृहस्थ जैसा भोजन करे वैसा भी अतिथि को करावे ,अतिथि का सत्कार करना सौभाग्य, यश, आयु और सुख को देने वाला है |
महाभारत में अतिथि–सत्कार के अनेक वृतांत मिलते है ,मोरध्वज द्वारा अपना पुत्र को आरे से चीर कर अतिथि के शेर को खिला देना ,
भूखे बहेलिये के लिए कबूतर कबूतरी का स्वयं आग में जल जाना ,
महारानी कुंती का ब्राह्मण कुमार के बदले अपने पुत्र भीम को दानव के पास उसका भोजन बनने हेतु भेज देना ,राजा शिवी द्वारा कबूतर की रक्षा के लिए अपने शरीर से अपनों हाथो द्वारा अपना मांस बाज रूपी इंद्र को देना आदि उदहारण अतिथि-सत्कार अनेक उच्च आदर्श को आदर्शों को दर्शाते है |
तैत्तीय उपनिषद् में आतिथ्य सत्कार को व्रत की संज्ञा दी गई है | रामायण में श्रीराम उस कबूतर का उदहारण देते है, जिसने व्याघ्र का यथोचित सत्कार करते हुए अपने मांस का भोजन कराया था |
महाभारत के शांतिपर्व में अतिथि-सत्कार न करने के दुषपरिणाम इस प्रकार बताये गये है-
अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात प्रतिनिवर्तते|
स दत्त्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति|| महाभारत /शांतिपर्व १९१/12
अर्थात जिस गृहस्थ के घर से अतिथि भूखा प्यासा निराश होकर लौट जाता है, उस गृहस्थ की कुटुंब संस्था नष्ट हो जाती है, क्योंकी आप के द्वार से निराश लौटा हुआ अतिथि आप के सारे पुण्यों को खीच लेता है | अतः सभी को अतिथि धर्म का पालन करना चाहिए व् कर्तव्यों का निर्वाहन करना चाहिए |
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