आप अपने जीवन को बदलना चाहते हैं? अपने सोचने का तरीका बदलिये| You want to change your life? Change your way of thinking क्या हम कभी ऐसा सोचते...
आप अपने जीवन को बदलना चाहते हैं? अपने सोचने का तरीका बदलिये|
You want to change your life? Change your way of thinking
क्या हम कभी ऐसा सोचते हैं?
नहीं,हम तो जैसा भीतर से आता है उसमें डूबकर वैसा ही सोचते, करते रहते हैं|
भीतर से सात्विकता आये तो ठीक है मगर आते हैं रजोगुण, तमोगुण|उनके साथ हम वैसे ही हो जाते हैं|
हम अकेले रहते तो ठीक था मगर हम रहते हैं सबके साथ, वहाँ नकारात्मक वृत्तियों में डूबकर वैसा ही सोचना, करना समस्याएं खडी करता है|प्रेम के अभाव में किसीभी तरह का समाधान असंभव होता है|
आत्मनिरीक्षण भी करने जायें तो पहले आत्म प्रेम होना जरूरी है वर्ना हम खुद को नकारते रहते हैं, खुद से दूर दूर भागते हैं|
अपनी नकारात्मकता के कारण खुद से दूर भागना, दूसरों पर निर्भर करता है|
वे भी खुद से दूर भाग रहे हैं तथा हम पर निर्भर हैं|
ऐसे में जो आत्मनिर्भर है वह सबका आश्रय बन सकता है या फिर वह अपनी दृष्टि बदले, अपने सोचने का तरीका बदले|
कोई शरीर का इलाज न कराना चाहे लेकिन जब रोग बढता है व कष्ट देता है तब इलाज कराना जरुरी हो जाता है इसी तरह जब हमारे स्वभाव की विषमता हमें बहुत ज्यादा तकलीफ देने लगती है तब बदलना जरूरी हो जाता है|
हमारी समस्या का कारण हम ही हैं-हमारा अहंकार|
अहं दृष्टि से ही हम सोचते, विचारते हैं|इससे क्रोध, लोभ, भय, घृणा आदि बढते ही हैं, कम नहीं होते|जब तकलीफ बढती है तो समझ रास्ता खोजती है|ऐसे में कोई मिल जाता है, वह कहता है-
'अपने जीवन को बदलना चाहते हो? तो अपने सोचने का तरीका बदलो|'
संदेश सभी के लिए समान है मगर किसीकी समझ में आता है, किसी की समझ में नहीं आता|वह फिर वैसा ही रहता है संघर्ष रत, आक्रामकता व पलायन में व्यस्त|
जो समझ जाता है वह अपने भीतर अहं दृष्टि तथा दोष दृष्टि की मौजूदगी को जान लेता है यह कि
मैं अहंकार से सोचता हूँ तथा लोगों के दोष देखता हूँ|इससे सबसे संबंध बिगडते हैं तथा बिगड़े संबंध तकलीफ देते हैं|
तो क्या किया जाय?
अहं दृष्टि तथा दोष दृष्टि से सोचने के तरीके को बदलना होगा|
प्रेमपूर्ण होना महत्वपूर्ण है|सीधे यह न हो सके तो सभी को अच्छे मानना होगा|
यह भी न हो सके तो अपने मन में माला जपें कि
"सभी लोग अच्छे हैं, सभी लोग बढिया हैं|"
मन इसका विरोध करेगा लेकिन मन को बीच में नहीं लाना है|जब सवाल हमारा हो, हमारे लिए अपनी जिम्मेदारी को समझना व कुछ करना जरूरी हो तो कभी किसी और को बीच में नहीं लाना चाहिये चाहे वह तथाकथित मन ही क्यों न हो!
हम ही मन हैं, हमसे अलग कोई मन नहीं है|और हमें अपनी जिम्मेदारी समझकर अपने सोचने का तरीका बदलना है, मन अपने आप बदलेगा|
"सभी लोग अच्छे हैं, सभी लोग बढिया है" निरंतर ऐसा सोचने से इसकी भावतरंगें फैलने लगती हैं|
शब्द, मंत्र सा कार्य करते हैं|
शब्द, मंत्र हैं|
कोई दिनरात ऐसा ही सोचता रहे-'मैं कमजोर हूँ, मैं कमजोर हूँ|'
तो शब्द असर करता है|समर्थ आदमी भी यह सोचना शुरू कर दे कि मैं कमजोर हूँ|
तो वह कमजोर हो जाता है|
इसके विपरीत भी हो सकता है|कमजोर आदमी सोचना शुरू करदे कि मैं समर्थ हूँ|
हालांकि कोई कमजोर होता नहीं, उसकी मान्यता ही उसे कमजोर बनाती है|शरीर का सवाल नहीं है|रोगग्रस्त शरीर चाहे दुर्बल, कमजोर हो गया हो मगर भीतर शक्तिशाली जीव बैठा हो तो अभिव्यक्ति अलग होती है|
मेरे आध्यात्मिक साथी का शरीर बहुत असमर्थ हो गया था मगर उसके भीतर जोश, जुनून वैसे के वैसे थे|वही उत्साह, वही, हिम्मत, वही तेजी से बोलने का तरीका|
तथाकथित समर्थ उससे मिलकर अपनी स्थिति समझ लेते|
भीतर समझ साफ हो तो क्या चाहिए नहीं तो अपने लिए शब्द बल का प्रयोग किया जा सकता है, करना भी चाहिए|
"सभी लोग अच्छे हैं, सभी लोग बढिया हैं"-ऐसा केवल सोचते रहें तो अपने भीतर से रागद्वेष, क्रोध क्षोभ घटेंगे, दूसरों में सद्भाव बढेगा|
हमारे भीतर एक अच्छी चीज चल रही होती है, उसका परिणाम तो होगा ही|
होता यह है कि भीतर क्रोध, घृणा, अभिमान, दोष दृष्टि, नाराजगी,द्वेष आदि भरे होते हैं, बाहर अच्छा अच्छा बोलते हैं परंतु भीतर जो है वह दूसरे को मालूम पडता है|
क्रोध तो क्रोध, प्रेम तो प्रेम|
हम तो बीच में हैं, एक मानसिक अभ्यास चला रखा है सकारात्मक बोलने का, सोचने का|यह चूंकि एक अच्छे उद्देश्य को लेकर है इसलिए इसमें कोई दोष नहीं है बल्कि यह सद्कर्म है|
मनवचनकर्म तीनों तरह से सद्कर्म संभव है|उपरोक्त सद्कर्म मानसिक है|
तीनों तरह से हो तब तो कहना ही क्या!
कल एक आर्टिस्ट मित्र बात कर रहे थे|वे जब किसी तीर्थ में गये तो सबसे पूछा गया-
आप क्या छोडना चाहते हैं?
सबने कुछ न कुछ छोडा|
आर्टिस्ट मित्र ने कहा-
मै किसीका भी बुरा करना छोडता हूँ|'
जैसे वे हैं वैसा ही उन्होंने कहा|वे कभी किसी का बुरा करते नहीं, तो यही कहा|
छूटा छुटाया छोडने में आसानी रहती है|
मन से किसीका बुरा करना छोडना बहुत मुश्किल है, वाणी तथा कर्म में तो फिर भी झूठा प्रदर्शन हो सकता है|
मन में प्रक्रिया चलायें इसके लिए किसीको कहने की जरूरत नहीं कि आप अच्छे हैं, बढिया हैं-कह सकते हैं लेकिन मानसिक प्रक्रिया श्रेष्ठतर होगी|
इससे हमारे सोचने का तरीका बदलेगा तथा दूसरों के भीतर चलनेवाले अहं संघर्ष से उन्हें मुक्ति मिलेगी|
उनका जीवन आक्रामकता या पलायन से रहित सहज करने में उन्हें मदद मिलेगी हमारी|
वे स्वस्थ हो सकेंगे|
हम स्वस्थ तो जगत स्वस्थ|
हम भले तो सब भले पोस्ट देव शर्मा जी
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