मोह ही कारन है दुख का एक आदमी के मकान में आग लग गई है। भीड़ इकट्ठी है। वह आदमी छाती पीटकर रो रहा है, चिल्ला रहा है स्वभावत:, उसके जीवनभर क...
मोह ही कारन है दुख का |
एक आदमी के मकान में आग लग गई है। भीड़ इकट्ठी है। वह आदमी छाती पीटकर रो रहा है, चिल्ला रहा है स्वभावत:, उसके जीवनभर की सारी संपदा नष्ट हुई जा रही है जिसे उसने जीवन समझा है, वही नष्ट हुआ जा रहा है। जिसके आधार पर वह खड़ा था, वह आधार गिरा जा रहा है। जिसके आधार पर उसके मैं में शक्ति थी, बल था; जिसके आधार पर सब कुछ था, वह सब बिखरा जा रहा है।
सब कुछ था इस मकान के होने से। और जिनका भी कुछ होना किसी चीज के होने पर निर्भर है, किसी दिन ऐसा ही रुदन, ऐसी ही पीड़ा उन्हें घेर लेती है। क्योंकि वे सब जो बाहर की संपदा पर टिके हैं किसी दिन बिखरते हैं, बाहर कुछ भी टिकने वाला नहीं है। वह उसी के मकान में आग लग गई हो, ऐसा नहीं, सभी के बाहर के मकानों में आग लग जाती है। असल में बाहर जो भी है वह आग पर चढा हुआ ही है। तो वो छाती पीटता है, रोता है स्वाभाविक है।
फिर पड़ोस में से कोई दौड़ा हुआ आता है और कहता है, व्यर्थ रो रहे हो तुम। तुम्हारे लड़के ने मकान तो कल बेच दिया। उसका बयाना भी हो गया है। क्या तुम्हें पता नहीं ? बस, आँसू तिरोहित हो गए। उस आदमी का छाती पीटना बंद हो गया। जहाँ रोना था, वहाँ वह हँसने लगा, मुस्कुराने लगा। सब एकदम बदल गया। अभी भी आग लगी है, मकान जल रहा है; वैसा ही जैसा क्षणभर पहले जलता था। फर्क कहाँ पड़ गया ? मकान अब मेरा नहीं रहा, अपना नहीं रहा। मोह का जो जोड़ था मकान से वह टूट गया है। अब भी मकान में आग है, लेकिन अब आँख में आँसू नहीं हैं। आँख में जो आँसू थे, वे मकान के जलने की वजह से थे ? मकान अब भी जल रहा है। आँख में जो आँसू थे वे मेरे के की वजह से थे। मेरा अब नहीं जल रहा है, आँखें साफ हो गई हैं। अब आँसुओं की परत आँख पर नहीं है। अब उस आदमी ठीक-ठीक दिखाई पड़ रहा है। अभी उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। उधर आग की लपटें थीं, तो इधर आँख में भी तो आँसू थे सब धुंधला था, सब अंधेरा था। अब तक उसके हाथ-पैर काँपते थे, अब हाथ-पैर का कंपन चला गया। अब वह आदमी ठीक वैसा ही हो गया है, जैसे और लोग हैं। और कह रहा है, ठीक, जो हो गया, ठीक है।
तभी उसका लड़का दौड़ा हुआ आता है। और वह कहता है, बात तो हुई थी, लेकिन बयाना नहीं हो पाया। बेचने की बात चली थी, लेकिन हो नहीं पाया। और अब इस जले हुए मकान को कौन खरीदने वाला है। फिर आँसू वापस लौट आए, फिर छाती पीटना शुरू हो गया। मकान अब भी वैसा ही जल रहा है। मकान को कुछ भी पता नहीं चला कि इस बीच सब बदल गया है। सब फिर बदल गया है। मोह फिर लौट आया है। आँखें फिर अंधी हो गई हैं। फिर मेरा जलने लगा है।
इस जीवन में मोह ही जलता है, मोह ही चिंतित होता है, मोह ही तनाव से भरता है, मोह ही संताप को उपलब्ध होता है, मोह ही भटकाता है, मोह ही गिराता है। मोह ही जीवन का दुख है। इसलिए मोह को अंधकार कहने की सार्थकता है। मोह में जो हम करते हैं, मोह में जो हम होते हैं, मोह में जैसे हम चलते हैं, मोह में जो भी हमसे निकलता है, वह ठीक ऐसा ही है, जैसे अंधेरे में कोई टटोलता हो। नहीं कुछ पता होता, क्या कर रहे हैं। नहीं कुछ पता होता, कौन हो रहा है। नहीं कुछ पता होता, कौन-सा रास्ता है, कौन-सा मार्ग है। आँखें नहीं होती हैं। मोह अंधा है। और मोह का अंधापन आध्यात्मिक अंधापन है।
मकान मेरा कैसे हो सकता है ? मैं नहीं था, तब भी था। मैं नहीं रहूंगा, तब भी रहेगा। जमीन मेरी कैसे हो सकती है ? मैं नहीं था, तब भी थी। मैं नहीं रहूंगा, तब भी होगी। और जमीन को बिलकुल पता नहीं है कि मेरी है। और मेरा मोह एक सम्मोहन का जाल फैला लेता है, मेरा बेटा है, मेरी पत्नी है, मेरे पिता हैं, मेरा धर्म है, मेरा धर्मग्रंथ है, मेरा मंदिर है, मेरी मस्जिद है। मैं के आस-पास एक बड़ा जाल खड़ा हो जाता है। वह जो मैं का फैलाव है, वही मोह का अंधकार है।
कोई टिप्पणी नहीं