मुझसे कितने ही साधक मिलते हैं, लगभग सभी ही यह जरूर कहते हैं कि स्वामीजी बस अमुक एक इच्छा पूरी हो जाए, फिर मैं खूब साधन करूंगा। पर वे मन की च...
मुझसे कितने ही साधक मिलते हैं, लगभग सभी ही यह जरूर कहते हैं कि स्वामीजी बस अमुक एक इच्छा पूरी हो जाए, फिर मैं खूब साधन करूंगा।
पर वे मन की चालबाज़ी नहीं समझते। देखो एक बड़े राज की बात है कि मन का भोजन है विचार। मन को जीवित रहने के लिए विचार चाहिए ही। निर्विचार मन नाम की कोई चीज होती ही नहीं। निर्विचार की स्थिति में मन होता ही नहीं। और विचार दो में से एक का ही होता है, या तो अतीत की स्मृति, या भविष्य की कामना। यों हर इच्छा तुम्हें भविष्य में ले जाती है। इससे मन को और जीने का आश्वासन हो जाता है।
मन कहता है, कर लेंगे, अभी क्या जल्दी है, बस यह एक इच्छा पूरी हो जाए, फिर मैं शांत हो जाऊंगा। पर उसका तो काम ही झूठ बोलना है, असली बात तो यह है कि इच्छा की पूर्ति से इच्छा की निवृत्ति नहीं होती, वरन्-
"तृष्णा अधिक अधिक अधिकाई"
इच्छाएँ बढ़तीं ही हैं।
जितनी जितनी आप मन की इच्छा पूरी करते जाएँगे, मन उतना ही और-और इच्छाएँ करता चलेगा, इसे अ-मन करना और और कठिन हो जायेगा। पहली ही इच्छा पर मन की चालबाज़ी को पहचान कर, मन को डाँट कर रोक देने वाले को, मन सरलता से काबू हो जाता है।
क्या आप नहीं जानते कि रोग, अवगुण, आदत और साँप से, छोटे होते हुए ही छुटकारा पा लेना चाहिए। इनकी उपेक्षा कर देने वाले को, फिर इनके बढ़ जाने पर, इनसे छुटकारा कैसे मिलेगा?
अपने मित्र लोकेशानन्द की बात मान लो। कह दो अपने मन से कि अ मन! अब मैं तेरी चाल में नहीं आने वाला, और कुछ मिले न मिले, भले ही पास का भी चला जाए, मैं तो अभी, इसी वक्त, जैसा हूँ, वैसा ही साधन में लगता हूँ। तूने रहना है तो रह, जाना है तो जा, आज से मैं तेरी गुलामी छोड़ कर उन नंदनंदन का संग करूँगा।
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