क्यों है शनिदेव का प्रकोप कष्टमयी - kyon hai shanidev ka prakop kashtamayee - नीलांजन समाभासं रवि पुत्रां यमाग्रजं। छाया मार्तण्डसंभूतं ...
क्यों है शनिदेव का प्रकोप कष्टमयी -kyon hai shanidev ka prakop kashtamayee -
नीलांजन समाभासं
रवि पुत्रां यमाग्रजं।
छाया मार्तण्डसंभूतं
तं नामामि शनैश्चरम्॥
शनिदेव का जन्म व माता-पिता
शनिदेव का जन्म ज्येष्ठ माह की कृष्ण अमावस्या के दिन हुआ था। सूर्य के अन्य पुत्रों की अपेक्षा शनि शुरू से ही विपरीत स्वभाव के थे। शनि भगवान सूर्य तथा छाया (संवर्णा) के पुत्र हैं। ये क्रूर ग्रह माने जाते हैं। इनकी दृष्टि में जो क्रूरता है, वह इनकी पत्नी के शाप के कारण है। 'जब शनि देव का जन्म हुआ तो उनकी दृष्टि पिता पर पड़ते ही सूर्य को कुष्ठ रोग हो गया। धीरे-धीरे शनि देव का पिता से मतभेद होने लगा। सूर्य चाहते थे कि शनि अच्छा कार्य करें, मगर उन्हें हमेशा निराश होना पड़ा। संतानों के योग्य होने पर सूर्य ने प्रत्येक संतान के लिए अलग-अलग लोक की व्यवस्था की, मगर शनि देव अपने लोक से संतुष्ट नहीं हुए। उसी समय शनि ने समस्त लोकों पर आक्रमण की योजना बना डाली।
ब्रह्म पुराण में शनि की कथा के अनुसार
बचपन से ही शनि भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। वे श्रीकृष्ण के अनुराग में निमग्न रहा करते थे। वयस्क होने पर इनके पिता ने चित्ररथ की कन्या से इनका विवाह कर दिया था। इनकी पत्नी सती, साध्वी और परम तेजस्विनी थी। एक रात वह ऋतु स्नान करके पुत्र प्राप्ति की इच्छा से शनि के पास पहुँची, पर यह श्रीकृष्ण के ध्यान में निमग्न थे। इन्हें बाह्य संसार की सुध ही नहीं थी। पत्नी प्रतीक्षा करके थक गयी। उसका ऋतुकाल निष्फल हो गया। इसलिये उसने क्रुद्ध होकर शनि देव को शाप दे दिया कि आज से जिसे तुम देख लोगे, वह नष्ट हो जायगा। ध्यान टूटने पर शनि देव ने अपनी पत्नी को मनाया। पत्नी को भी अपनी भूल पर पश्चात्ताप हुआ, किन्तु शाप के प्रतिकार की शक्ति उसमें न थी, तभी से शनि देवता अपना सिर नीचा करके रहने लगे। क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि इनके द्वारा किसी का अनिष्ट हो।
शनिदेव के अधिदेवता
शनि के अधिदेवता प्रजापति ब्रह्मा और प्रत्यधिदेवता यम हैं। इनका वर्ण कृष्ण, वाहन गिद्ध तथा रथ लोहे का बना हुआ है। यह एक-एक राशि में तीस-तीस महीने तक रहते हैं। यह मकर और कुम्भ राशि के स्वामी हैं तथा इनकी महादशा 19 वर्ष की होती है।
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार शनि
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार शनि महाराज हमारे भीतर कड़ी मेहनत और परिश्रम का प्रतिनिधित्व करते हैं I इस पूरी दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है जो बुद्धि, ज्ञान और मेहनत के द्वारा प्राप्त ना करा जा सके, वे हमारे अन्दर इसी महत्वपूर्ण गुण को दर्शाते हैं। इन्ही की कृपा से हम एकाग्रचित हो कर धैर्य के साथ परिश्रम कर अपने लक्षों को प्राप्त करते हैं।
शनि हमें शारीरिक और मानसिक पीड़ा व दर्द बर्दाश्त करने की क्षमता देते है। जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियों में जब काष्ठ और समस्याओं से जब मनुष्य घिरा होता है तो शनि महराज उसे उनसे लड़ने का बाल देते हैं I हमें सहिष्णुता और अच्छा धैर्य देते है जिसके कारण हम अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए लगातार दृढ़ प्रयास कर सकते हैं।
शनि महाराज का आशीर्वाद जातक को आत्म अनुशासन का गुण प्रदान करता है जिससे जातक किसी महात्मा की तरह तपस्या कर सकते हैं लक्ष्य को प्राप्त कर सकते है। शनि महाराज इनसान को हाथ का कोई ना कोई हुनर प्रदान करते हैं, जातक हाथो से चीज़े तैयार करने में माहिर होते हैं जैसे की कपड़ो की सिलाई, मिटटी के बर्तन बनाना, संगीत के उपकरण (जैसे गिटार, हर्मोनिम) बजाना आदि…. शनि प्रधान व्यक्ति एक उत्तम हस्तशिल्पी एवं अछा धनुर्धर हो सकता है। जादूगरों को भी हाथ की सफाई का हुनर शनि महराज की कृपा से ही मिलता है।
प्राकृतिक रूप से शनि एक पारंपारिक ग्रह हैं जिसके कारण शनि प्रधान व्यक्ति इतिहास, प्राचीन वस्तुओं , पुरातत्त्व विभाग तथा पुराणिक कथाओ में भी विशेष रूचि लेने वाले पाए जाते हैं | शनि महाराज जातक को अपनी पारम्परिक एवं पुराणिक रीति रिवाज़ों का सम्मान कर निभाते रहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं
शनि जिस किसी भी जातक की कुंडली मैं वर्गोत्तम हों (अर्थात : राशि चक्र और नवंशाचक्र चक्र में एक ही राशि में बैठा हों ) या नवांश कुंडली में त्रिकोण (१, ५, ९ भाव में बैठे हों ) उस जातक में ऊपरोक्त लिखी कई खूबियां पाई जाती हैं ।
शनि ग्रह यदि कहीं रोहिणी-शकट भेदन कर दे तो पृथ्वी पर बारह वर्ष घोर दुर्भिक्ष पड़ जाये और प्राणियों का बचना ही कठिन हो जाय। शनि ग्रह जब आने वाला था, तब ज्योतिषियों ने महाराज दशरथ से बताया कि यदि शनि का योग आ जायगा तो प्रजा अन्न-जल के बिना तड़प-तड़प कर मर जाएगी। प्रजा को इस कष्ट से बचाने के लिये महाराज दशरथ अपने रथ पर सवार होकर नक्षत्र मण्डल में पहुँचे। पहले तो महाराज दशरथ ने शनि देवता को नित्य की भाँति प्रणाम किया और बाद में क्षत्रिय-धर्म के अनुसार उनसे युद्ध करते हुए उन पर संहारास्त्र का संधान किया। शनि देवता महाराज की कर्तव्यनिष्ठा से परम प्रसन्न हुए और उनसे वर माँगने के लिये कहा। महाराज दशरथ ने वर माँगा कि जब तक सूर्य, नक्षत्र आदि विद्यमान हैं, तब तक आप शकट भेदन न करें। शनिदेव ने उन्हें वर देकर संतुष्ट कर दिया।
दंडाधिकारी
सूर्य देव के कहने पर भगवान शिव ने शनि को बहुत समझाया, मगर वह नहीं माने। उनकी मनमानी पर भगवान शिव ने शनि को दंडित करने का निश्चय किया और दोनों में घनघोर युद्ध हुआ। भगवान शिव के प्रहार से शनिदेव अचेत हो गए, तब सूर्य का पुत्र मोह जगा और उन्होंने शिव से पुत्र के जीवन की प्रार्थना की। तत्पश्चात शिव ने शनि को दंडाधिकारी बना दिया।
शनि न्यायाधीश की भाँति जीवों को दंड देकर भगवान शिव का सहयोग करने लगे। एक बार पिप्पलाद मुनि की बाल्यावस्था में ही उनके पिता का देहावसान हो गया। बड़े होने पर उनको ज्ञात हुआ कि उनकी पिता की मृत्यु का कारण शनि है तो उन्होंने शनि पर ब्रह्मदंड का संधान किया। उनके प्रहार सहने में असमर्थ शनि भागने लगे। विकलांग होकर शनि भगवान शिव से प्रार्थना करने लगे। भगवान शिव ने प्रकट होकर पिप्पलाद मुनि को बोध कराया कि शनि तो केवल सृष्टि नियमों का पालन करते हैं। यह जानकर पिप्पलाद ने शनि को क्षमा कर दिया।
कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य
शनि देव के विषय में यह कहा जाता है कि इनके कारण गणेश जी का सिर छेदन हुआ। शनिदेव के कारण राम जी को वनवास हुआ था। रावण का संहार शनिदेव के कारण हुआ था। शनिदेव के कारण पांडवों को राज्य से भटकना पड़ा। शनि के क्रोध के कारण विक्रमादित्य जैसे राजा को कष्ट झेलना पड़ा। शनिदेव के कारण राजा हरिशचंद्र को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी। राजा नल और उनकी रानी दमयंती को जीवन में कई कष्टों का सामना करना पड़ा था।
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