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सीमंतोन्नयन संस्कार क्यों-seemantonnayan sanskaar kyon-

  3.सीमंतोन्नयन संस्कार क्यों- seemantonnayan sanskaar kyon- यह तीसरा संस्कार है, जिसे सीमंतकरण या सीमंत-संस्कार भी कहते हैं। यह संस्कार गर्...

 
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3.सीमंतोन्नयन संस्कार क्यों-seemantonnayan sanskaar kyon-

यह तीसरा संस्कार है, जिसे सीमंतकरण या सीमंत-संस्कार भी कहते हैं। यह संस्कार गर्भपात रोकने के लिए किया जाता है। चौथे, छठे व आठवें माह में गिरा हुआ गर्म जीवित नहीं रहता। माता की मृत्यु कभी-कभी हो जाती है,

 क्योंकि इस समय शरीर में स्थित इन्द्र विद्युत प्रवल होता है। हालांकि सातवें माह में गिरा हुआ गर्भ जीवित रह सकता है। इन तीनों महीनों में यह संस्कार कर देने से यह इन्द्र विद्युत शांत हो जाता है, जिससे गर्भपात की आशंका समाप्त हो जाती है।

यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठे या आठवें मास में किया जाता है। वैसे आठवां मास ही उपयुक्त है। इसका उद्देश्य गर्म की शुद्धि और माता को श्रेष्ठचिंतन करने की प्रेरणा प्रदान करना होता है।

 उल्लेखनीय है कि गर्म में चौथे माह के बाद शिशु के अंग-प्रत्यंग, हृदय आदि बन जाते हैं और उनमें चेतना आने लगती हैं, जिससे बच्चे में जाग्रत छाएं माता के हृदय में प्रकट होने लगती हैं।

 इस समय गर्भस्थशिशु शिक्षणयोग्य बनने लगता है। उसके मन और बुद्धि में नई चेतना-शक्ति जाग्रत होने लगती है। ऐसे में जो प्रभावशाली अच्छे संस्कार डाले जाते हैं, उनका शिशु के मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।

इसमें कोई संदिह नहीं कि गर्भस्वशिशु बहुत ही संवेदनशील होता है। सती मदालसा के बारे में कहा जाता है कि वह अपने बच्चे के गुण, कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थी, 

फिर उसी प्रकार निरंतर चिंतन, किया-कलाप, रहन-सहन, आहार-विहार और बर्ताव अपनाती थी, जिससे बच्चा उसी मनोभूमि में उत जाता था, जैसाकि वह चाहती थी।

भक्त प्रस्ताव की माता कयाधू को देवर्षि नारद भगवद्भक्ति के उपदेश दिया करते थे, जो प्रहलाद ने गर्भ में ही सुने थे। व्यासपुत्र शुकदेव ने अपनी मां के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। अर्जुन ने अपनी गर्मी पत्नी सुभद्रा को मेदन की जो शिक्षा दी थी, वह सब गर्भस्थशिशु अभिमन्यु ने सीख ली थी। 

उसी शिक्षा के आधार पर 16 वर्ष की आयु में ही अभिमन्यु ने अकेले 7 महारथियों से युद्ध कर चक्रव्यूह भेदन किया। इस संस्कार को करते समय शास्त्रवर्णित गूलर आदि वनस्पति द्वारा गर्भिणी पत्नी के सीमंत (मांग) का

ॐ मूर्विनयामि, ॐ मुजर्विनयामि, ॐ स्वर्विनयामि पढ़ते हुए और पृथक् करणादि क्रियाएं करते हुए पति को निम्नलिखित मंत्रोच्चारण करना चाहिए-

येनादितेः सीमानं नयति प्रजापतिर्महते सौभगाय । 

तेनाहमस्यै सीमानं नयामि प्रज्ञामस्यै जरदष्टिं कृणोमि ॥

अर्थात् जिस प्रकार देवमाता अदिति का सीमंतोन्नयन प्रजापति ने किया था, उसी प्रकार में इस गर्भिणी का सीमन करके इसके पुत्र को जरावस्यापर्यंत दीर्घजीवी करता हूँ। संस्कार के अंत में कुछ प्राणियों द्वारा पत्नी को आशीर्वाद दिलवाएं।

सीमंतोन्नयन-संस्कार में पर्याप्त घी मिली खिचड़ी खिलाने का विधान है। इसका उल्लेख गोभिल गृस्यसूत्र में इस प्रकार किया गया है-

किं पश्यस्सीत्युक्त्वा प्रजामिति वाचयेत् तं सा स्वयं भुञ्जीत वीरसूर्जीवपत्नीति ब्राह्मण्यो मंगलाभिर्वाग्भि पासीरन् । -गोभिल गृह्यसूत्र 2/7/9-12

अर्थात् 'यह पूछने पर कि क्या देखती हो, तो स्त्री कहे मैं संतान देखती हूं।' उस खिचड़ी का गर्भिणी सेवन करे। इस संस्कार के समय उपस्थित स्त्रियां उसे आशीर्वाद देते हुए कहें कि तू जीवित संतान उत्पन्न करने वाली हो। तुम चिरकाल तक सौभाग्यवती बनी रहो।

सीमंतोन्नयन संस्कार प्रयोजन बालक की मानसिक शक्तियों को उन्नत करना है। इसमें माता के प्रति पिता के व्यवहार की मुख्य भूमिका रहती है।

 यदि कोई माता अपने पति के कटुव्यवहार, दुर्व्यसन, क्रोध, आदि से पीड़ित रहती है, तो उसका प्रभाव होने वाली संतान पर अवश्य पड़ता है। उसी प्रकार गर्भवती नारी जिस प्रकार के विचार या दृश्य को मन में बसा लेती है, 

वैसी ही संतान उत्पन्न होती है। गर्भिणी के आचार-विचार एवं रहन-सहन का प्रभाव भी गर्भस्थ शिशु पर पडता है, अतः इसका पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। इसी भावना से इस संस्कार का विधान अनिवार्य है।

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