हिंदू-धर्म में संस्कारों का महत्त्व क्यों-hindoo-dharm mein sanskaaron ka mahattv kyon- भारतीय संस्कृति का मूलभूत उद्देश्य श्रेष्ठ संस्कारव...
हिंदू-धर्म में संस्कारों का महत्त्व क्यों-hindoo-dharm mein sanskaaron ka mahattv kyon-
भारतीय संस्कृति का मूलभूत उद्देश्य श्रेष्ठ संस्कारवान मानव का निर्माण करना है। सामाजिक दृष्टि से सुख-समृद्धि और भौतिक ऐश्वर्य आवश्यक है, किंतु मनुष्यजीवन केवल खाने-पीने और मौज-मस्ती करने के लिए ही नहीं है। हमारे ऋषियों ने भौतिक उन्नति को गौण और आध्यात्मिकज्ञान प्राप्ति को जीवन का मुख्य उद्देश्य बताया है।
इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए स्वयं को तैयार करने की क्रिया का नाम ही संस्कार है। वेद, पुराणों तथा धर्म-शास्त्रों में शिशु के गर्भ में प्रवेश करने से लेकर जीवन के विभिन्न अवसरों पर और अंततः शरीर छोड़ने तक विविध संस्कारों का विधान है। संस्कारों से व्यक्ति के मन के विकार नष्ट होते हैं तथा व्यक्तित्व प्रभावशाली और जीवन आनंदपूर्ण बनता है।
संस्कार क्या हैं ?
संस्कार का साधारण अर्थ किसी दोषयुक्त वस्तु को दोषरहित करना है। अर्थात् जिस प्रक्रिया से वस्तु को दोषरहित किया जाये उसमें अतिशय का आधान कर देना ही 'संस्कार' है। संस्कार मनःशोधन की प्रक्रिया हैं। गौतम धर्मसूत्र के अनुसार संस्कार उसे कहते हैं, जिससे दोष हटते हैं और गुणों की वृद्धि होती है।
शंकराचार्य के अनुसार- संस्कारो हि नाम संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा स्याद्दोषापनयनेन वा । - ब्रह्मसूत्र भाष्य 1/1/4 अर्थात् व्यक्ति में गुणों का आरोपण करने अथवा उसके दोषों को दूर करने के लिए, जो कर्म किया जाता है, उसे संस्कार कहते हैं।
महर्षि चरक के मतानुसार-संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते । अर्थात् व्यक्ति या वस्तु में नए गुणों का आधान (जमा करने, समाने) करने का नाम संस्कार है। संस्कार - विधि में लिखा है-जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते । अर्थात् जन्म से सभी शूद्र होते हैं, लेकिन संस्कारों द्वारा व्यक्ति को द्विज बनाया जाता है।
हमारे ऋषि-मुनि यह मानते थे कि जन्म-जन्मांतरों की वासनाओं का लेप जीवात्मा पर रहता है। पूर्व-जन्म के इन्हीं संस्कारों के अनुरूप ही जीव नया शरीर धारण करता है, अर्थात् जन्म लेता है और उन संस्कारों के अनुरूप ही कर्मों के प्रति उसकी आसक्ति होती है इस प्रकार जीव सर्वथा संस्कारों का दास होता है। मीमांसा दर्शनकार के मतानुसार- कर्मवीजं संस्कारः ।
अर्थात् संस्कार ही कर्म का बीज है तथा 'तन्निमित्ता सृष्टि' अर्थात् वही सृष्टि का आदि कारण है। प्रत्येक व्यक्ति का आचरण पूर्वजन्मों के उसके निजी संस्कारों के अतिरिक्त उसके वर्तमान वंश या कुल के संस्कारों से भी प्रभावित रहता है। अतः संस्कारों का उद्देश्य पहले से उपस्थित गुणों-अवगुणों का परिमार्जन करके विद्यमान गुणों एवं योग्यताओं को स्वस्थ रूप से विकास का अवसर देना है।
आमतौर पर मनुष्य का आकर्षण विविध इंद्रियभोगों की तरफ शीघ्र ही हो जाता है। स्वभाव की इसी कमजोरी के कारण मानव समय-समय पर मानसिक विकृतियों एवं दुर्बलताओं का शिकार होता है, जिससे स्वयं मानव और समाज चरित्रहीनता व अनैतिकता का दुःख भोगता है।
चूंकि मानव में दोषों का परिष्कार करने की क्षमता सर्वाधिक होती है, अतः संस्कारों का सर्वाधिक महत्त्व भी मानवसमाज के लिए माना गया है। मानवजीवन के सभी प्रकार के कर्मों का कारण 'मन' ही है। वह सभी अच्छे बरे कर्म मन से ही करता है।
बार-बार किसी कर्म को करने से उसकी विशेष प्रकार की आदतें बन जाती हैं ये ही आदत बीजरूप में मन के गहरे तल पर जमा होती रहती हैं, जो मृत्य के बाद मन के साथ ही अपने सूक्ष्म शरीर में बनी रहती है और नया शरीर धारण करने पर अगले जन्म में उसी प्रकार के कर्म करने की प्रेरणा बन जाती हैं। इन्हीं को 'संस्कार' कहा जाता है।
ये संस्कार प्रत्येक जन्म में संग्रहीत होते चले जाते हैं, जिससे इनका एक विशाल भंडार बन जाता है, जिसे 'संचित कर्म' कहा जाता है। इन संचित कर्मों का कुछ ही भाग एक योनि (जीवन) में भोगने के लिए उपस्थित रहता है, जो वर्तमान जीवन में प्रेरणा का कार्य करता है।
ये संस्कार अच्छे-बुरे होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के कर्म करता है। इन कर्मों से पुनः नये संस्कार बनते हैं। इस प्रकार इन संसकारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
मृत्यु के समय मात्र यह भौतिक शरीर ही नष्ट होता है, जबकि सूक्ष्मशरीर जन्म-जन्मांतरों से शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहन होता है। ये संस्कार मानव के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी उसके साथ मिल जाते हैं, जिसके कारण मनुष्य का व्यक्तित्व प्रभावित होता है।
शिशु के गर्भधारण की परिस्थितियां भी इन पर प्रभाव डालती हैं, माता-पिता की मानसिकता एवं शारीरिक स्वास्थ्य भी प्रभाव डालता है। इन्हीं से शिशु की वैसी ही कृति बनती है। ये ही संस्कार जीवन में प्रेरणा बनकर मनुष्य को उसी मार्ग पर चलाते है।
पूर्वजन्म के संचित संस्कार वर्तमान जीवन में उदित होकर अपना प्रभाव दिखाते हैं, उसी को 'प्रारब्ध' कहा जाता है तथा वर्तमान जीवन में किये जाने वाले कर्मों को 'पुरुषार्थ' कहा जाता है।
प्रारब्ध से पुरुषार्थ सदा प्रबल होता है, जिससे पूर्वजन्म के अशुभ-संस्कारों में परिवर्तन किया जा सकता है और नवीन शुभ संस्कारों को स्थापित किया जा सकता है।
संस्कारों की परंपरा का व्यक्ति पर अद्वितीय प्रभाव माना जाता है। संस्कारों के समय किए जाने वाले विभिन्न कर्मकांडों, यज्ञ, मंत्रोच्चारण आदि की प्रक्रिया को विज्ञान के ध्वनिसिद्धांत, चुंबकीय शक्तिसंचरण, प्रकाश तथा रंगों के प्रभाव आदि द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है।
अतः संस्कार-प्रणाली की प्रामाणिकता पूरी तरह असंदिग्ध है। कर्मों के साथ-साथ अच्छे-बुरे संस्कार भी बनते रहते हैं। मनोविज्ञान मानता है कि मनुष्य किसी बात को सामान्य उपदेशों, प्रशिक्षणों अथवा परामर्शो द्वारा दिए गए निर्देशों की तुलना में अनुकूल वातावरण में जल्दी सीखता है।
उल्लेखनीय है कि मस्तिष्क का स्थूलकार्य तो सचेतन मन द्वारा होता है और सूक्ष्मकार्य अचेतन मन द्वारा बाह्य जगत् से विचारसामग्री सचेतन मन जमा करता है, जबकि उस सामग्री को अचेतन मन संचित कर लेता है। अतः मनुष्य अपने सचेतन मन को जैसा बनाता है, वैसा ही उसका अचेतन मन भी आप से आप बन जाता है। निपुण मन ही आत्मा का सबसे बड़ा सेवक और सहायक होता है। सुशिक्षित और परिष्कृत मन के बिना आत्मा की शक्ति का जाग्रत होना संभव नहीं हो पाता।
संस्कार- प्रक्रिया में पुरोहित द्वारा देवताओं के आवाहन के कारण देव- अनुकम्पा की अनुभूति, यज्ञ आदि कर्मकांड के कारण धर्म-भावनाओं से ओत-प्रोत मनोभूमि, स्थान की पवित्रता, हर्षोल्लास का वातावरण, यजमान द्वारा भावपूर्ण शपथग्रहण, स्वजन संबंधियों, परिचितों, मित्रों की उपस्थिति-ये सब संस्कारित होने वाले व्यक्ति को एक विशेष प्रकार की मानसिक स्थिति में पहुंचा देते हैं।
कर्मकांड की ये क्रियाएं मन पर अमिट और चिरस्थाई प्रभाव छोड़ती हैं। यह प्रभाव मन को परिस्थिति के अनुकूल शिक्षित करता है। उदाहरण के लिए एक व्यभिचारी व्यक्ति जब अपनी प्रेमिका को विवाह आदि करने के लंबे-चौड़े आश्वासन देता है, तो उसका कोई महत्त्व नहीं समझा जाता, जबकि विवाह-संस्कार में संपन्न समस्त धार्मिक कर्मकांडों का प्रभाव ऐसा पड़ता है कि वर-वधू आजीवन एक अटूट बंधन में बंधे अनुभव करते हैं। जिस वातावरण में और भावना के साथ सारी रस्में पूरी की जाती हैं, उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव उन्हें जीवन-भर अलग होने से रोकता है।
संस्कार के अनेक प्रकार मानव के जन्मजात अशुभ संस्कारों का परिशोधन करके, उसमें उत्तम संस्कारों में परिणत करने के लिए वैदिक वांगमय में संस्कार विधियों के प्रयोग बताए गए हैं। इन संस्कारों को गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यंत करने की पूरी व्यवस्था दी गई है।
संस्कारों की संख्या अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग बताई है। गौतमस्मृति में 40 संस्कारों का उल्लेख किया गया है- चत्वारिंशत्संस्कारैः संस्कृतः । कहीं-कहीं 48 संस्कारों का भी उल्लेख मिलता है।
महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कार बताए हैं। दस कर्मपद्धति के मतानुसार संस्कारों की संख्या 10 मानी गई है, जबकि महर्षि वेदव्यास ने अपने ग्रंथ व्यासस्मृति में प्रमुख सोलह (षोडश) संस्कारों का उल्लेख किया है-
गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतो जातकर्म च । नामक्रियानिष्क्रमणेऽन्नाशनं वपनक्रिया ॥
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः । केशांतः स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रहः ॥ - व्यासस्मृति 1/13-15
त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्काराः षोडश स्मृताः ।
वेद का कर्म-मीमांसादर्शन 16 संस्कारों को ही मान्यता प्रदान करता है। आधुनिक विद्वानों ने इन्हें सरल और कम खर्चीला बनाने का प्रयास किया है, जिससे अधिक-से-अधिक लोग इनसे लाभ उठा सकें। इनमें प्रथम 8 संस्कार प्रवृत्तिमार्ग में एवं शेष 8 मुक्तिमार्ग के लिए उपयोगी हैं।
प्रत्येक संस्कार का अपना महत्त्व, प्रभाव और परिणाम होता है। यदि विधि-विधान से उचित समय और वातावरण में इन संस्कारों को कराया जाए, तो उनका प्रभाव असाधारण होता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को ये संस्कार अवश्य करने चाहिए।
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