8. शिखा (चोटी) रखने और उसमें गांठ बांधने की प्रथा क्यों -shikha (chotee) rakhane aur usamen gaanth baandhane kee pratha kyon- हिंदूधर्म के...
8. शिखा (चोटी) रखने और उसमें गांठ बांधने की प्रथा क्यों -shikha (chotee) rakhane aur usamen gaanth baandhane kee pratha kyon-
हिंदूधर्म के साथ शिखा का अटूट संबंध होने के कारण चोटी रखने की परंपरा प्राचीनकाल से चली आ रही है। शिखा का महत्त्व भारतीय संस्कृति में अंकुश के समान है। यह हमारे ऊपर आदर्श और सिद्धांतों का अंकुश है। इससे मस्तिष्क में पवित्र भाव उत्पन्न होते हैं। शिखा का परिमाप धर्मग्रंथों में गोखुर अर्थात् गाय के खुर जितना बताया गया है।
यत्र बाणाः सम्पतन्ति कुमारा विशिखा इव ।
-शुक्लयजुर्वेद, 17/48
विशिखा का अर्थ हैं- गोखुर के परिमाण की शिखा वाले ।
कात्यायनस्मृति में लिखा है-
सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च ।
विशिखो व्युपवीतश्च यत्करोति न तत्कृतम् ॥
- कात्यायनस्मृति 14
अर्थात् 'बिना शिखा के जो भी यज्ञ, दान, तप, व्रत आदि शुभ कर्म किए जाते हैं, वे सब फ हो जाते हैं।'
यहां तक कि बिना शिखा के किए गए पुण्य-कर्म भी राक्षस-कर्म हो जाते हैं-
विना यच्छिखया कर्म विना यज्ञोपवीतकम् ।
राक्षसं तद्धि विज्ञेयं समस्ता निष्फला क्रियाः ॥
-महर्षि वेदव्यास
इसलिए मनुस्मृति में आज्ञा दी गई है-
स्नाने दाने जपे होमे सन्ध्यायां देवतार्चने ।
शिखाग्रन्थिं सदा कुर्यादित्येततन्मनुरब्रवीत् ॥
अर्थात् स्नान, दान, जप, होम, संध्या और देवपूजन के समय शिखा में ग्रंथि (चोटी में गांठ) अवश्य लगानी चाहिए। पूजा-पाठ के समय शिखा में गांठ लगाकर रखने से मस्तिष्क में संकलित ऊर्जा तरंगें बाहर नहीं निकल
पाती हैं। इनके अंतर्मुखी हो जाने से मानसिक शक्तियों का पोषण, सद्बुद्धि, सद्विचार आदि की प्राप्ति,
वासना की कमी, आत्मशक्ति में बढ़ोतरी, शारीरिक शक्ति का संचार, अवसाद से बचाव, अनिष्टकर प्रभावों
से रक्षा, सुरक्षित नेत्र ज्योति, कार्यों में सफलता तथा सद्गति जैसे लाभ भी मिलते हैं। शिखारहित व्यक्ति श्रीहीन (आंतरिक लक्ष्मी) कहा गया है। यजुर्वेदीय तैत्तिरीयोपनिषद् के 'शिखाध्याय'' (1/6/1 ) में कहा गया है-
अन्तरेण तालुके । य एष स्तन इवावलम्बते। सन्द्रेयोनिः । यत्रासो केशान्तो विवर्तते । व्यपोह्य शीषकपाले । अर्थात् तालु के मध्य में स्तन की तरह जो केशराशि दिखती हैं, वहां केशों का मूल है। वहां सिर के कपाल का भेदन करके 'इन्द्रयोनि नामक सुषुम्ना नाड़ी है।"
चिन्तकों का कहना है कि योगी इस सुषुम्ना नाड़ी को प्रबुद्ध करके आत्मसाक्षात्कार करते हैं। वैद्य इसी नाड़ी को मस्तुलिंग तथा साथवाले अग्रभाग को योगी तथा वैद्य ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं। वैद्यों का यह कथन है कि शरीर में प्रधान अंग सिर है।
शरीर में जितनी भी नाड़ियां हैं, उनका संबंध सिर से है। मानवजीवन का केन्द्र भी सिर ही है। सिर में दो शक्तियां रहती हैं- प्रथम ज्ञानशक्ति और दूसरी कर्मशक्ति। इन दोनों
शक्तियों की परंपरा नाड़ियों द्वारा सारे शरीर में फैलती है। शरीर में भी ज्ञान और कर्म -ये दो विभाग हैं।
दोनों विभागों का मूलस्थान मस्तुलिंग तथा मस्तिष्क है।
'मस्तुलिंग' कर्मशक्ति का केन्द्र है और 'मस्तिष्क' ज्ञानशक्ति का मस्तिष्क के साथ ज्ञानेन्द्रियों कान, नाक, आंख, जीभ और त्वचा का संबंध है तथा मस्तुलिंग से हाथ, पैर, गुदा, इन्द्रिय और वाणी का संबंध है।
मस्तिष्क और मस्तुलिंग जितने स्वस्थ या सामर्थ्यवान होंगे ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मन्द्रियों में उतनी ही शक्ति बढ़ेगी। इन दोनों के अस्वस्थ होने से इन्द्रियों में भी विकार आ जाएंगे।
प्रकृति की विलक्षणता है कि मस्तिष्क ठंडक चाहता है और मस्तुलिंग गर्मी। मस्तिष्क की गर्मी को शान्त करने के लिए उस पर तेल आदि रखा जाता है, क्षौरकर्म आदि कराया जाता है, किन्तु मस्तुलिंग की स्थिति विचित्र है।
इसे गर्मी या ठंडक से बचने के लिए कपड़े या अन्य वस्तु से बने पदार्थ से ढका नहीं जा सकता।
मस्तुलिंग में मध्यम उष्णता के लिए गोखुर के परिमाप के बाल ही उपयुक्त हैं, जो सिर पर ही होते हैं।
मस्तुलिंग पर सदा गहरे बाल रहें। अन्य केशों से उसकी विशेषता या उच्चता रहे, इसलिए उसका नाम शिखा है। कर्मप्रवर्तक होने से 'शिखा' का संबंध धर्म से भी है।
संध्या आदि के समय परमात्मा की कृपा शिखा के माध्यम से ही हमारे अंदर पहुंचती है। इसीलिए नंगे सिर होकर संध्या करने या भोजन करने का विधान है।
एक प्रकार से हमारी शिखा रेडियो के एरियल की तरह हमारे मस्तुलिंग पर होती है। शिखा रखने का प्रावधान हिन्दूधर्म के चारों वर्णों में एक समान है।
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