वानप्रस्थ-संस्कार क्यों- vaanaprasth-sanskaar kyon- लोकसेवियों की सुयोग्य और समर्थ सेना वानप्रस्थ आश्रम के भंडारागार से ही निकलती है। इसील...
वानप्रस्थ-संस्कार क्यों-vaanaprasth-sanskaar kyon-
लोकसेवियों की सुयोग्य और समर्थ सेना वानप्रस्थ आश्रम के भंडारागार से ही निकलती है। इसीलिए चारों आश्रमों में वानप्रस्थ की सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। वानप्रस्थी राष्ट्र के प्राण, मानवजाति के शुभचिंतक एवं देवस्वरूप होते हैं।
गृहस्थ आश्रम का अनुभव लेने के बाद जब उम्र 50 वर्ष से ऊपर हो जाए तथा संतान की भी संतान हो जाए, तब परिवार का उत्तरदायित्व समर्थ बच्चों पर डाल कर वानप्रस्थ-संस्कार करने की प्रथा प्रचलित है। इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य सेवाधर्म ही है।
भारतीय धर्म और संस्कृति का प्राण वानप्रस्थ-संस्कार कहा जाता है, क्योंकि जीवन को ठीक तरह से जीने की समस्या इसी से हल हो जाती है। जिस देश, धर्म, जाति तथा समाज में हम उत्पन्न हुए हैं, उसकी सेवा करने, उसके ऋण से मुक्त होने का अवसर भी वानप्रस्थ में ही मिलता है।
अतः जीवन का चतुर्थांश परमार्थ में ही व्यतीत करना चाहिए। नदी की तरह वानप्रस्थ का अर्थ है-चलते रहो चलते रहो। रुको मत। अपनी प्रतिभा के अनुदान सबको बांटते चलो। वानप्रस्थ के संबंध में हारीत स्मृतिकार ने लिखा है-
एवं वनाश्रमे तिष्ठन् पातयश्चैव किल्विषम् । चतुर्थमाश्रमं गच्छेत् संन्यासविधिना द्विजः ॥
- हारीतस्मृति 62
अर्थात् गृहस्थ के बाद वानप्रस्थ ग्रहण करना चाहिए। इससे समस्त मनोविकार दूर होते हैं और वह निर्मलता आती है, जो संन्यास के लिए आवश्यक है।
मनुस्मृति में वानप्रस्थ के बारे में कहा गया है-
महर्षिपितृदेवानां गत्वाऽनृण्यं यथाविधिः । पुत्रे सर्व समासज्य वसेन्माध्यस्थमाश्रितः ॥
-मनुस्मृति 4/257
अर्थात् ढलती आयु में पुत्र को गृहस्थी का उत्तरदायित्व सौंप दें। वानप्रस्थ ग्रहण करें और देव, पितर तथा ऋषियों का ऋण चुकायें। वानप्रस्थ-आश्रम में उच्च आदशों के अनुरूप जीवन ढालने, समाज में निरंतर सद्ज्ञान, सद्भाव एवं
लोकोपकारी रचनात्मक सत्प्रवृत्तियां बढ़ाने तथा कुप्रचलनों, मूढ़ मान्यताओं आदि के निवारण हेतु कार्य करने का मौका मिलता है, जिससे व्यक्ति का लोक-परलोक सुधरता है।
छान्दोग्य उपनिषद् 3/16/5 में उल्लिखित है कि वानप्रस्थ का समय जीवन आयु के 48 वर्ष बीतने पर प्रारंभ होता है। जीवन एक यज्ञ है।
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