योगशास्त्र के अनुसार, महर्षि पतंजलि योग की परिभाषा में कहते हैं, योगडित्तवृत्तिनिरोधः, जिसका अर्थ है कि योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है।...
योगशास्त्र के अनुसार, महर्षि पतंजलि योग की परिभाषा में कहते हैं, योगडित्तवृत्तिनिरोधः, जिसका अर्थ है कि योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है। इसका तात्पर्य है कि योग का उद्देश्य मन को बुराईयों से दूर कर, शुभ गुणों को स्थिर करना और परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होना है। इसके विपरीत, बुराईयों में फंसकर ईश्वर से दूर हो जाना वियोग कहलाता है।
योग का वास्तविक उद्देश्य मन को स्थिर करना और आत्मा को परमात्मा के निकट लाना है। योग साधक को निर्देश देता है कि वह अपने जीवन में सत्य, धर्म और शांति को अपना कर मोक्ष प्राप्ति की दिशा में बढ़े। ऋषि पतंजलि ने अष्टांग योग के आठ अंगों के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति के लिए एक स्पष्ट मार्ग बताया है।
इस संसार में जितने भी मनुष्य आदि प्राणी सुखी है, उन सभी के साथ मित्रता करना। -दुखियों पर कृपा दृष्टि रखना। पुण्य आत्माओं के साथ प्रसन्नता, तथा पापियों के साथ उपेक्षा अर्थात न प्रेम रखना न वैर करना, इस प्रकार के व्यवहार एवं कर्म से उपासक की आत्मा में सत्य धर्म का प्रकाश और मन स्थिरता को प्राप्त होता है। मन की स्थिरता के साथ ही आत्मा के द्वारा मनुष्य उस परमात्मा को जान लेता है, "केवल उस परमात्मा को जान लेने पर किसी और वस्तु को पाने और जानने की इच्छा नहीं होती, सब कुछ जान लेना होता है इसी को ही समाधि एवं मोक्ष की स्थिति कहते हैं।"
उपासना योग के आठ अंग होते हैं, जिनके अनुष्ठान से अविद्या आदि दोषों का क्षय और ज्ञान के प्रकाश की वृद्धि होने से जीव मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। आइए जानने का प्रयास करते हैं ऋषि पतंजलि के द्वारा बताए गए अष्टांग योग का अनुसरण कर किस प्रकार हम ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में अग्रसर हो सकते हैं।
योग के आठ अंग
1. यम - यह बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। यम पांच प्रकार के होते हैं जो अष्टांग योग के बीज़ स्वरूप है।
पहला (अहिंसा), सब प्रकार से सब काल में सब प्राणियों के साथ प्रेम पूर्वक रहना किसी के साथ द्वेष एवं हिंसा ना करना।
दूसरा (सत्य), जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही लिखना, कहना और जानना सत्य है, अर्थात जैसा अपने ज्ञान में हो वैसा ही सत्य बोले, करें और माने।74
तीसरा (अस्तेय), चोरी तथा अधर्म के कृत्यों से दूर रहना।
चौथा [स्वाध्य्याय] बाल्यावस्था से लेकर 25 वर्ष पर्यंत वेदों का पठन-पाठन । करना, 25 वर्ष से लेकर 48 वर्ष पर्यंत विवाह करना, परस्त्री गमन से दूर रहना, विधा को ठीक-ठीक पढ़कर सदा बढ़ाते रहना और जितेंद्रिय होना।
पांचवा (अपरिग्रह), विषयों और अभिमान आदि दोषों से रहित होना। अर्थात आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना।
इस प्रकार यम के पांचों प्रकारों को अच्छी तरह से व्यवहार और कर्मों में उतार लेने के बाद ही मनुष्य को अगले अंग की सिद्धि के लिए में जाना चाहिए।
२. नियम- जो कि पांच प्रकार के होते हैं, और यह आंतरिक अनुशासन से संबंध रखते हैं।
पहला (शौच), इसका संबंध शरीर और आत्मा की शुद्धि से हैं एक भीतर की और दूसरी बाहर की शुद्धि, भीतर की शुद्धि धर्माचरण, सत्यभाषण, सत्संग आदि शुभ गुणों के आचरण से होती है और बाहर की पवित्रता जल आदि से।
दूसरा (संतोष), सदा धर्म अनुष्ठान एवं परोपकार में लिप्त रहना और दुखो में शोकातुर न होना।
तीसरा (तप), जिस प्रकार अग्नि सोने को तपा कर के निर्मल कर देती है वैसे ही आत्मा और मन धर्म आचरण और शुभ कर्मों के तप से निर्मल हो जाता है।
चौथा (स्वाध्याय), मोक्ष विद्या रूपी वेद शास्त्रों को पढ़ना-पढ़ाना और सदा ओंकार का जप करते रहना।
पांचवा (ईश्वरप्राणिधान), अपने सभी कर्म, गुण, आयु, आत्मा, मन, वचन सभी द्रव्यों को ईश्वर की आज्ञा पालन के लिए समर्पित करना, उस परमात्मा के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर देना। ईश्वर के प्रति समर्पण भाव रखना।
पाँच यम और पाँच नियमों को यथावत अनुष्ठान कर ग्रहण करने से उस पुरुष के मन से वैर भाव छूट जाता है। जब वह धर्म का वास्तविक स्वरूप जान जाता है तब मनुष्य निश्वय करके केवल सत्य ही मानता है बोलता और करता है। तथा उसकी संगति से अन्य पुरुष भी सत्याचरण, सत्य भाषण आदि करने लगते हैं।
3. आसन
जिसमें सुख पूर्वक शरीर और आत्मा स्थिर हो अपनी रूचि के अनुसार उपासना के लिए ठीक वैसे ही आसन को ग्रहण करना चाहिए। पतंजलि के अनुसार, शारीर को एक स्थिति में स्थिर और सहज बनाए रखना ही आसन है। पतंजलि योग शास्त्र में आसान से संबंधित अधिक वर्णन हमें प्राप्त नहीं होते कोई भी सुखपूर्वक स्थिति जो योग के लिए उचित हो उसे ही महर्षि पतंजलि ने आसान कहां है। जैसे: सुखासन
4. प्राणायाम
नासिका को हाथ से पकड़े बिना ज्ञान के द्वारा स्वास को रोकने की विधि का नाम प्राणायाम है, जो वायु बाहर से भीतर की ओर आता है उसको श्वास और जो भीतर से बाहर जाता है उसको प्रश्वास कहते हैं, प्राणायाम चार प्रकार के होते हैं।
(पहला) रेचकः श्वास को बाहर निकालना। जब भीतर से बाहर को श्वास निकले तब उसको बाहर ही रोक दे, इसको पहला प्रणाम कहते हैं।
(दूसरा) पूरकः श्वास को भीतर लेना। जब बाहर से श्वास भीतर को आए तब उसको जितना रोक सके उतना भीतर ही रोक दें, यह दूसरा प्रणाम है।
(तीसरा) कुंभकः श्वास को रोकना। इसमें न श्वास भीतर लेना है न बाहर छोड़ना है जितनी देर हो सके श्वास को जहां-तहां, ज्यों के त्यों एकदम रोक दे।
(चौथा) शून्यकः श्वास के बिना स्थिति जब श्वास भीतर से बाहर आए तब बाहर ही कुछ रोकते रहे, और जब बाहर से भीतर आवे तब उसको भीतर ही थोड़ा-थोड़ा रोकते रहे, अर्थात रोकते हुए श्वास को बाहर छोड़ें तथा अंदर लेवे।
प्राणायाम श्वास और प्राण (जीवन शक्ति) को नियंत्रित करने की विधि है। इसके माध्यम से मन को शांत और स्थिर किया जाता है। इन चारों प्राणायाम का अनुष्ठान किरने पर चित्त निर्मल होकर उपासना में स्थित हो जाता है। इस प्रकार प्राणायाम पूर्वक उपासना करने से आत्मा पर अज्ञान रूपी जो आवरण है वह नित्य प्रतिदिन नष्ट होता जाता है और ज्ञान का प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ता जाता है।5. प्रत्याहार- प्रत्याहार का अर्थ है इंद्रियों को बाहरी विषयों से हटाकर आंतरित विषयों की ओर मोडना। इससे साधक ध्यान में लीन हो सकता है और बाह विकर्षणों से मुक्त हो जाता है। मन पर विजय प्राप्त करना ही प्रत्याहार का मुद उद्देश्य है।
6. धारणा
मन की चंचलता को वश में करके अपने ध्यान को नाभि, हृदय, मस्तक नासिका के अग्रभाग आदि स्थानों में स्थित करके मन में ही ओंकार का जप अ उसका अर्थ, जो परमेश्वर है उस पर विचार करना "धारणा" की स्थिति है।
7.ध्यान
"ध्यानं निर्विषयं मनः" मन को निर्विष्य करना ही ध्यान कहलाता है ध्याः वि की मुद्रा में बैठकर, उस निराकार परमपिता परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य पदा का स्मरण नहीं करना तथा उसी अंतर्यामी के स्वरूप और ज्ञान में मग्न हो जाना यह ध्यान की स्थिति है।
8. समाधि
जैसे अग्नि में तप कर लोहा भी अग्नि रूप हो जाता है उसी प्रकार परमेश्वर के ज्ञान रूपी अग्नि में तप कर, अपने स्वरूप को भूलकर, आत्मा को परमेश्वर के प्रकाश स्वरूप आनंद और ज्ञान में परिपूर्ण करने की स्थिति समाधि हैं, ध्यान और ब्र समाधि में इतना ही भेद है कि ध्यान में ध्यान करने वाला, जिस मन से, जिस वस्तु का क ध्यान करता है वे तीनों विद्यमान रहते हैं, परंतु समाधि में आत्मा सब कुछ भूल कर क केवल परमेश्वर ही के आनंद स्वरूप में मग्न हो जाता है। इस स्थिति में साधक, साध्यस और साधन का भेद समाप्त हो जाता है यहीं शरीर रहते मोक्ष की अनुभूति है।
अष्टांग योग का समर्पित और विधिपूर्वक अभ्यास करने पर मनुष्य अपने समस्त दोषों से मुक्त होकर परमानंद और मोक्ष को प्राप्त करता है। हालांकि, दुष्ट प्रवृत्ति वाले व्यक्ति इस सिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाते, क्योंकि जब तक मनुष्य दुष्ट कर्मों से दूर होकर अपने मन को शांत नहीं करता और आत्मा को पुरुषार्थी नहीं बनाता, तब तक वह कितनी भी शिक्षा ग्रहण कर ले, परमेश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है। इसलिए, मोक्ष की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास करना ही मनुष्य जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य है। इस उद्देश्य की प्राप्ति केवल अष्टांग योग के माध्यम से संभव है, और इससे भिन्न कोई अन्य मार्ग नहीं है।
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