अष्ट प्रमाण से समझे सत्य असत्य विषय वस्तु को प्राचीन सनातन वैदिक ग्रंथों में समय-समय पर मिलावट और प्रक्षेपण का प्रश्न उठता रहा है। यह समस्...
अष्ट प्रमाण से समझे सत्य असत्य विषय वस्तु को
प्राचीन सनातन वैदिक ग्रंथों में समय-समय पर मिलावट और प्रक्षेपण का प्रश्न उठता रहा है। यह समस्या मुख्यतः महाभारत, रामायण, मनुस्मृति और अन्य प्रमुख ग्रंथों में देखी जाती है, जहाँ मूल ग्रंथों में श्लोकों की संख्या समय के साथ बढ़ती चली गई। उदाहरण के तौर पर, महाभारत के बारे में माना जाता है कि मूल "जय संहिता" में केवल 8000 श्लोक थे, जो बाद में 1,10,000 श्लोक तक पहुँच गए। इस प्रकार की मिलावट या प्रक्षेपण की समस्या के चलते ग्रंथों के अध्ययन में भ्रम उत्पन्न हो सकता है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि इन ग्रंथों में प्रक्षिप्त (मिलावटी) श्लोकों की पहचान की जाए। प्राचीन शास्त्रों में बताए गए आठ प्रमुख प्रमाणों का सही उपयोग करके हम इन प्रक्षिप्त श्लोकों की पहचान कर सकते हैं। इन प्रमाणों की सहायता से हम सत्य और असत्य, प्रामाणिक और अप्रामाणिक के बीच अंतर कर सकते हैं। न्याय दर्शन, जो प्राचीन भारतीय दर्शनशास्त्र की प्रमुख शाखाओं में से एक है, तर्क और प्रमाण के सिद्धांतों पर आधारित है। न्याय दर्शन के अनुसार, ज्ञान को प्राप्त करने के लिए प्रमाण (साक्ष्य) आवश्यक होते हैं। इस प्रणाली में आठ प्रमाणों का वर्णन किया गया है, जो सत्य ज्ञान की प्राप्ति के साधन हैं। आइए इन आठ प्रमाणों के बारे में विस्तार से जानते हैं, साथ ही उनके सूत्र भी प्रस्तुत करते हैं।
1. प्रत्यक्ष प्रमाणः यह प्रमाण इंद्रियों द्वारा प्राप्त जानकारी पर आधारित होता है। जब कोई वस्तु इंद्रियों (जैसे आँखों, कानों) द्वारा प्रत्यक्ष रूप से जानी जाती है, तो उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। उदाहरण के लिए, दूर से देखकर यदि संदेह होता है कि वह मनुष्य है, लेकिन पास जाने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वह मनुष्य ही है, यह प्रत्यक्ष प्रमाण है।
सूत्र: "इन्द्रियार्थसन्निकरोत्पन्नं ज्ञानं प्रत्यक्षम्।" (न्यायसूत्र 1.1.4)
(इन्द्रियों के द्वारा वस्तुओं का साक्षात संपर्क जब होता है, तो जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं।)
2. अनुमान प्रमाणः अनुमान प्रमाण का अर्थ होता है किसी पदार्थ या घटना के चिन्हों से उसका ज्ञान प्राप्त करना। उदाहरणस्वरूप, यदि हम धुआँ देखते हैं, तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कहीं आग लगी होगी। इसी प्रकार, इस सृष्टि को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस बनाने वाला कोई होना चाहिए।
"सूत्र": "पूर्ववत्तद्वत्तसम्प्रतिपत्तिः अनुमानम्।" (न्यायसूत्र 1.1.5)
पहले से ज्ञात लक्षणों के आधार पर उस वस्तु का ज्ञान, जो प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखा हो, अनुमान कहलाता है।)
3. उपमान प्रमाणः यह प्रमाण तुलनात्मक ज्ञान पर आधारित होता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति ने एक प्रकार का हाथी देखा है और फिर दूसरा हाथी देखा, तो वह समानता के आधार पर दूसरे हाथी को पहचान सकता है।
सूत्र': "सादृश्यतद्वत्त्वबोधकं ज्ञानं उपमानम्।" (न्यायसूत्र 1.1.6)
किसी अज्ञात वस्तु की जानकारी उस वस्तु के समानता के आधार पर प्राप्त ज्ञान उपमान कहलाता है।)
4. शब्द प्रमाणः यह प्रमाण शास्त्रों और ऋषियों के द्वारा दिए गए ज्ञान पर आधारित होता है। जैसे, वेदों और उपनिषदों में बताए गए मोक्ष के ज्ञान को सत्य मानकर चलना शब्द प्रमाण कहलाता है।
'सूत्र': "आप्तोपदेशः शब्दः।" (न्यायसूत्र 1.1.7)
विश्वसनीय व्यक्ति द्वारा कहे गए वाक्य जो ज्ञान प्रदान करते हैं, उन्हें शब्द प्रमाण कहते हैं।)
5. एतिह्य (इतिहास) प्रमाणः जो घटनाएँ सत्यवादी और विद्वानों द्वारा बताई गई हैं, और जो असंभव या असत्य प्रतीत नहीं होतीं, वे इतिहास प्रमाण के अंतर्गत आती हैं। उदाहरण के लिए, वेद सम्मत ग्रंथों में लिखे गए इतिहास को इसी श्रेणी में रखा जाता है।
'सूत्र': "पूर्वोपदेशसिद्धं ज्ञानं ऐतिह्यम्।" (न्यायसूत्र 3.1.13)
(जो ज्ञान पुरानी परंपराओं या वचनों के आधार पर आता है, उसे ऐतिह्य प्रमाण कहा जाता है।)
6. अर्थापत्ति प्रमाणः यह प्रमाण किसी बात के न कहे जाने पर भी उसे समझने की योग्यता पर आधारित होता है। जैसे, यदि कहा जाता है कि बादलों से बारिश होती है, तो यह समझा जा सकता है कि बिना बादल के बारिश नहीं होगी।
सूत्र: "अनुपलबधिकरणम् अर्थापत्तिः।" (न्यायसूत्र 2.1.10)
(जब प्रत्यक्ष या अनुमान से वस्तु का ज्ञान नहीं होता, तो जो ज्ञान प्राप्त होता है. उसे अर्थापत्ति कहते हैं।।
7. संभव प्रमाणः यह प्रमाण उस घटना पर आधारित होता है, जो सुष्टि कम के विरुद्ध न हो। जैसे, संतान उत्पत्ति के लिए माता-पिता का होना संभव और आवश्यक है, इसलिए इस प्रकार की असंभव बातों को प्रमाण नहीं माना जा सकता।
सूत्र: "यत्सर्वत्र संभाव्यति तत् संभाव्यः।" (न्यायसूत्र 3.1.12)
(जिस वस्तु का कहीं भी संभव होना सत्य होता है, उसे सम्भव प्रमाण कहा जाता है।।।
8. अभाव प्रमाणः जब किसी वस्तु की अनुपस्थिति के आधार पर ज्ञान प्राप्त होता है, तो उसे अभाव प्रमाण कहते हैं। जैसे, यदि कहा जाए कि किसी स्थान पर जल है, परंतु वह जल नहीं मिला, तो इस अभाव से यह ज्ञान प्राप्त होता है कि वहाँ जल नहीं है।
सूत्र: "अभावप्रमाणं अनुपलब्धिः।" (न्यायसूत्र 2.1.11)
किसी वस्तु की अनुपस्थिति या अभाव का ज्ञान अनुपलब्धि प्रमाण कहलाता है।
न्याय दर्शन में प्रमाणों का यह वर्गीकरण सत्य ज्ञान प्राप्त करने के विभिन्न माध्यमों को स्पष्ट करता है। इनमें से प्रत्येक प्रमाण का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है और यह हमें तर्क और साक्ष्य आधारित दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करता है
इन आठ प्रमाणों का सही ढंग से उपयोग करने पर हम ग्रंथों में मिलावट या प्रक्षेपण की पहचान कर सकते हैं। प्राचीन काल में हस्तलिखित प्रतियों के माध्यम से स्वार्थी व्यक्तियों द्वारा शास्त्रों में प्रक्षिप्त श्लोक जोड़े जाते थे, जिससे भ्रम उत्पन्न होता था। अब यह हमारा उत्तरदायित्व बनता है कि हम इन प्रमाणों का उपयोग कर शास्त्रों की सही अर्थ करें और आने वाली पीढ़ियों को सत्य ज्ञान से परिचित कराएँ।
यह प्रक्रिया केवल वैदिक शास्त्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक दृष्टिकोण है जो संपूर्ण भारतीय साहित्य पर लागू होता है। इसलिए यह महत्वपूर्ण है। कि हम सत्य और असत्य के बीच भेद करने की इस कला को समझें और अपने धर्म संस्कृति और ज्ञान की सही पहचान करें।
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