इंद्रियां, मन, और अंतःकरण मनुष्य के मानसिक और शारीरिक संरचना को समझाने के लिए उपयोग किए गए प्रमुख तत्व हैं। ये तत्व एक-दूसरे के साथ गहराई से...
इंद्रियां, मन, और अंतःकरण मनुष्य के मानसिक और शारीरिक संरचना को समझाने के लिए उपयोग किए गए प्रमुख तत्व हैं। ये तत्व एक-दूसरे के साथ गहराई से संबंध रखते हैं और मानव के अनुभवों, क्रियाओं और विचारों को संचालित करते हैं। शास्त्रों मेंइन तीनों का महत्व और कार्य विस्तार से वर्णित है। आइए हम इन्हें शास्त्रीय प्रमाणों के साथ समझते हैं
1. इंद्रियां (इन्द्रिय)
इंद्रियां वे साधन हैं जिनके माध्यम से मनुष्य बाहरी संसार का अनुभव करता है और विभिन्न विषयों से जुड़ता है। इन्हें दो प्रकारों में विभाजित किया जाता है:
ज्ञानेंद्रियां (ज्ञान प्राप्त करने वाली इंद्रियां): ये पाँच इंद्रियां हमें बाहरी संसार से ज्ञान प्राप्त करने में सहायता करती हैं:
1. चक्षु (नेत्र) - दृष्टि के लिए
2. श्रोत्र (कान) - श्रवण के लिए
3. घ्राण (नाक) - गंध को ग्रहण करने के लिए
4. रसना (जीभ) - स्वाद के लिए
5. त्वचा (स्पर्श) - स्पर्श के अनुभव के लिए
कर्मेद्रियां (कर्म करने वाली इंद्रियां): ये पाँच इंद्रियां हमें कार्य करने क्षमता प्रदान करती हैं:
1. पाणि (हाथ) - ग्रास करने के लिए
2. पाद (पैर) - चलने के लिए
3. वाक (वाणी) - बोलने के लिए
4. उपस्थ (जननेंद्रिय) - संतति उत्पत्ति के लिए
5. पायु (मलेंद्रिय) - मल त्याग के लिए
शास्त्र प्रमाणः
कठोपनिषद (2.1.15) में इंद्रियों का महत्व इस प्रकार बताया गया है:
"पराज्ञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूः तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तरात्मन्। अर्थ: परमात्मा ने इंद्रियों को बाहर की ओर उन्मुख किया है, इसलिए जीव बाहरी वस्तुओं को देखता है और अंतर्मुख नहीं हो पाता।
यह श्लोक दर्शाता है कि इंद्रियां स्वाभाविक रूप से बाहरी विषयों की ओर केंद्रित रहती हैं, और जब तक उनका नियंत्रण नहीं किया जाता, आत्मा का सही ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
2. मन
मन वह तत्व है जो इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त जानकारी को एकत्रित और विश्लेषित करता है। मन इंद्रियों के द्वारा प्राप्त अनुभवों को क्रमबद्ध करता है और निर्णय लेने में सहायता करता है। मन का कार्य संकल्प-विकल्प होता है। इंद्रियां शब्द, स्पर्श रूप, रस, गंध को अनुभव करती हैं, लेकिन मन उस अनुभव को सही या गलत अच्छा या बुरा, सुखद या दुखद के रूप में मूल्यांकन करता है।
शास्त्र प्रमाणः
भगवद गीता (6.6) में भगवान श्रीकृष्ण मन के बारे में कहते हैं:
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः। अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्ततात्मैव शत्रुवत् ॥" अर्थ: जिसने मन को जीत लिया, उसका मन उसके लिए मित्र है, लेकिन जिसने मन को वश में नहीं किया, उसके लिए मन शत्रु के समान है।
यह श्लोक मन की महत्ता और उसके नियंत्रण की आवश्यकता को बताता है। यदि मन नियंत्रित नहीं है, तो वह इंद्रियों के माध्यम से विषयों की ओर खींचकर व्यक्ति को दुख और भ्रम में डाल देता है। मन 11वीं इंद्री है उसका कार्य विषय चिंतन, विचार, संकल्प-विकल्प आदि करना है वह अपने विशेष गुणों के कारण दोनों प्रकार की इंदियों में संबंध स्थापित करता है केवल मन को जीत लेने से ज्ञानेंद्रियां तथा कर्मेंद्रियां आदि दसों इंद्रियाँ स्वतः ही जीत ली जाती है। इसलिए मन को इंद्रियों का राजा कहा जाता है।
मन को वश में कैसे करें?
मन को वश में करने के लिए शास्त्रों में कई विधियों और सिद्धांतों का वर्णन किया गया है। मन अत्यंत चंचल और अस्थिर होता है, लेकिन इसे नियंत्रित और वश में किया जा सकता है। भगवद गीता, योगसूत्र, उपनिषद और अन्य वैदिक ग्रंथों में मन के नियंत्रण के महत्व और उपायों को विस्तार से समझाया गया है। आइए शास्त्र प्रमाणों के साथ इसे विस्तार से समझें:
मन का स्वभाव और चंचलता
मन का स्वभाव स्वाभाविक रूप से चंचल है। यह इंद्रियों के द्वारा प्राप्त विषयों की - ओर बार-बार आकर्षित होता रहता है। मन की अस्थिरता को नियंत्रित करना ही मनुष्य के आत्मसाक्षात्कार और आत्मविकास के लिए आवश्यक है। शास्त्रों में कहा गया है कि मन को वश में करना कठिन तो है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य के द्वारा यह संभव है।
शास्त्र प्रमाणः
भगवद गीता (6.34) में अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से मन की चंचलता के बारे में कहा:
"चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥" अर्थ: हे कृष्ण, मन अत्यंत चंचल, प्रमथनशील, और शक्तिशाली है। इसे नियंत्रित करना वायु को रोकने के समान कठिन है।
यह श्लोक दर्शाता है कि मन को नियंत्रित करना कठिन है, लेकिन असंभव नहीं।
मन को वश में करने के उपाय
1. अभ्यास (Practice)
मन को नियंत्रित करने का सबसे पहला और महत्वपूर्ण उपाय हे अभ्यास। अभ्यास का अर्थ है बार-बार मन को एकाग्र करने का प्रयास करना। जब हम बार-बार मन को एक दिशा में लगाते हैं, तो धीरे-धीरे यह स्थिर होने लगता है। मन को एक स्थायी शुभ, और उच्चतर विषयों की ओर लगाने से यह नियंत्रित होता है।
भगवद गीता (6.35) में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥"
अर्थ: हे महाबाहु अर्जुन, मन निस्संदेह चंचल और वश में करने में कठिन है, परंतु इसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।
अभ्यास का अर्थ योग, ध्यान, और प्राणायाम के माध्यम से मन को स्थिर करना है। नियमित ध्यान और साधना से मन की चंचलता कम होती है और मन वश में आता है।
2. वैराग्य (Detachment)
वैराग्य का अर्थ है इच्छाओं और भौतिक वस्तुओं के प्रति निरासक्ति विकसित करना। मन अनावश्यक इच्छाओं और भौतिक वस्तुओं में उलझा रहता है, जिससे उसका नियंत्रण कठिन हो जाता है। वैराग्य के माध्यम से व्यक्ति उन वस्तुओं से दूरी बना लेत है, जो मन को अस्थिर करती हैं। वैराग्य से व्यक्ति भोग, सुख-सुविधाओं और विषय वासना से मुक्त होकर मन को आत्मिक उन्नति की ओर प्रेरित करता है।
पतंजलि योगसूत्र (1.12) में कहा गया है:
"अभ्यास-वैराग्याभ्यां तन्निरोधः।"
अर्थः अभ्यास और वैराग्य के द्वारा चित्त की वृत्तियों का निरोध संभव है।
यह सूत्र स्पष्ट करता है कि चित्त (मन) को शांत और स्थिर करने के लिए अभ्यास और वैराग्य दो प्रमुख साधन हैं।
3. सत्संग (Good Company)
सत्संग अर्थात सज्जनों और संतों की संगति, मन को स्थिर और शुद्ध बनाने का एक और उपाय है। जब व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान और सदगुणों से युक्त संगति में रहता है. तो मन अपने आप उच्च विचारों की ओर प्रवृत्त होता है और सांसारिक इच्छाओं से मुक्त होने लगता है। इससे मन का ध्यान आत्मिक और आध्यात्मिक विषयों की ओर केंद्रित होता है।
4. ध्यान (Meditation)
ध्यान मन को वश में करने का सबसे प्रभावी उपाय है। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने मन को एकाग्र करता है और उसे भटकने से रोकता है। ध्यान से मन की चंचलता कम होती है और वह एकाग्र होकर शांति और स्थिरता प्राप्त करता है।
ध्यानं निर्विषयं मनः" ध्यान वह स्थिति है जिसमें मन को किसी भी बाहरी या आंतरिक विषयों से मुक्त कर दिया जाता है। इसका सीधा तात्पर्य है कि ध्यान में मन को विषयों के चक्र से बाहर निकालकर एक ऐसे स्थिर बिंदु पर केंद्रित किया जाता है, जहाँ विचार, इच्छाएं और बाहरी विक्षेप समाप्त हो जाते हैं।
ध्यान का सर्वोच्च उद्देश्य यह है कि मन को "निर्विषय" (अर्थात विषयों से रहित) बना दिया जाए। जब मन किसी विषय या भौतिक वस्तु से बंधा होता है, तो वह चंचल रहता है और व्यक्ति की मानसिक शांति भंग हो जाती है। लेकिन जब मन को किसी भी प्रकार के विचार या विषय से मुक्त किया जाता है, तब ध्यान की अवस्था में मन एकाग्र, शांत और स्थिर हो जाता है।
पतंजलि योगसूत्र (1.2) में ध्यान के बारे में कहा गया है:
"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः"
(अर्थ: योग चित्त (मन) की वृत्तियों (तरंगों) का निरोध है।)
यह सूत्र ध्यान की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है। ध्यान वह अवस्था है, जहाँ मन की सभी वृत्तियों को रोककर उसे निर्विषय और स्थिर बनाया जाता है। यह स्थिति आत्मज्ञान और आत्मिक शांति की ओर ले जाती है।
भगवद गीता (6.19) में ध्यान की अवस्था को दीपक की लौ से तुलना करते हुए कहा गया है:
"यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।"
-अर्थ जिस प्रकार वायु रहित स्थान में रखा दीपक स्थिर रहता है. उसी प्रकार ध्यान की अवस्था में मन भी स्थिर और निर्विषय होता है।
इस प्रकार, ध्यान का मुख्य उद्देश्य मन को बाहरी विषयों से मुक्त कर, उसे शुद्ध और स्थिर बनाना है।
5.( शास्त्रों का अध्ययन और चिंतन )
शास्त्रों के नियमित अध्ययन और चिंतन से मन को उच्च विचारों में लगाने में सहायता मिलती है। वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, भगवद गीता और अन्य वैदिक ग्रंथों ज्ञान की ओर अग्रसर होता है, जिससे का अध्ययन करने से व्यक्ति का मन आत्मिक ज्ञान उसकी सांसारिक इच्छाएं कम हो जाती हैं और मन वश में आता है।
मुण्डक उपनिषद (1.2.12) में कहा गया है:
"तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।"
अर्थ: आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु के पास जाकर शास्त्रों का अध्ययन और चिंतन करना चाहिए। शास्त्रों के अध्ययन से मन को गहराई से आत्मनिरीक्षण करने का अवसर मिलता है, जिससे मन शांत और स्थिर होता है।
निष्कर्ष: मन को वश में करना कठिन, लेकिन अभ्यास, वैराग्य, ध्यान, सत्संग, और शास्त्र अध्ययन के माध्यम से संभव है। शास्त्रों में बताया गया है कि मन की चंचलत को नियंत्रित करके व्यक्ति आत्मिक उन्नति और शांति प्राप्त कर सकता है। भगवद गीता, योगसूत्र, और उपनिषदों में मन को वश में करने के अनेक उपाय दिए गए है. जिन्हें अपनाकर व्यक्ति अपने जीवन को श्रेष्ठ और समृद्ध बना सकता है।
3. अंतःकरण (आंतरिक उपकरण)
अंतःकरण मानव के आंतरिक उपकरण का कुल रूप है, जिसमें चार प्रमुख भाग होते हैं:
1. मनः जो संकल्प-विकल्प करता है।
2. बुद्धि (इंटेलिजेंस): निर्णय लेने की शक्ति, जो सही और गलत का करती है।
3. चित्त (चेतना): स्मरण (Memory) और अनुभवों को संचित करने का स्थान|
4. अहंकार स्वयं के अस्तित्व का अनुभव ही अहंकार है। जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को परिभाषित करती है।
अंतःकरण मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का सम्मिलित रूप है। यह वह स्थान है वहाँ बाहरी अनुभवों को आंतरिक ज्ञान में परिवर्तित किया जाता है। मुण्डक उपनिषद (3.1.9) में अंतःकरण के चार भागों का संकेत इस प्रकार दिया गया है:
"मनसा वेदितव्यम।" अर्थः अंतःकरण के माध्यम से ही आत्मा और परमात्मा का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
अंतःकरण वह माध्यम है जिसके द्वारा हम आत्मा और ब्रह्मांड के गहन रहस्यों को समझते हैं। इसे साधना और आत्मनिरीक्षण के द्वारा शुद्ध किया जा सकता है।
मन, इंद्रियां और अंतःकरण के आपसी संबंध:
इंद्रियां बाहरी दुनिया से जानकारी प्राप्त करती हैं, और वह जानकारी मन तक पहुंचती है। मन उन सूचनाओं का विश्लेषण करता है और उसे बुद्धि तक भेजता है, जहाँ निर्णय लिया जाता है। अहंकार और चित्त इस पूरे प्रक्रिया में व्यक्ति की पहचान और स्मृतियों के अनुसार विचारों को दिशा देते हैं। यदि इंद्रियां, मन, और अंतःकरण नियंत्रित और शुद्ध होते हैं, तो व्यक्ति को सही दिशा में बढ़ने का मार्ग मिलता है।
कठोपनिषद (1.3.3-4) इस संबंध को सुंदर रूप से प्रस्तुत करता है:
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु । बुद्धि तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च॥ इन्द्रियाणि हयानाहुः विषयान् तेषु गोचरान्।"
अर्थ: शरीर को रथ मानो, आत्मा को रथी, बुद्धि को सारथी, मन को लगाम और इंद्रियों को घोड़े। ये घोड़े विषयों की ओर भागते हैं, परंतु जब बुद्धि और मन संयमित होते हैं, तब आत्मोन्नति होती है।
निष्कर्षः मन, इंद्रियां, और अंतःकरण जीवन के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इंद्रियां बाहरी संसार से जानकारी लाती हैं, मन उसे संशोधित करता है, और अंतःकरण का हर भाग (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) इस जानकारी को सही रूप में ग्रहण करने और निर्णय लेने में सहायता करता है। शास्त्रों में इन तत्वों का अध्ययन और उन्हें संयमित करने की विधियों का वर्णन किया गया है, ताकि व्यक्ति आत्मज्ञान और मुक्ति की ओर बढ़ सके।
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