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हमारी आने वाली पीढ़ी को यह जानने का पूर्ण अधिकार है कि वे एक महान संस्कृति के ध्वजवाहक हैं।

ये आर्य  कौन है यह जानने से पहले हमें आर्य शब्द का अर्थ जानना पड़ेगा "आर्य शब्द की जहें वेदों में निहित हैं. और इसका अर्थ उन व्यक्तियों...


ये आर्य  कौन है यह जानने से पहले हमें आर्य शब्द का अर्थ जानना पड़ेगा "आर्य शब्द की जहें वेदों में निहित हैं. और इसका अर्थ उन व्यक्तियों से है जो सभ्यता, शिष्टता, हे परोपकार, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानवीय गुणों से ओत-प्रोत होते हैं। "आर्य" की और पहचान जन्म से नहीं बल्कि कर्म से होती है। वैदिक ग्रंथों में यह कई स्थानों पर स्पष्ट किया गया है कि सभी मनुष्य जन्म से समान होते हैं. लेकिन जो लोग श्रार कर्म और आदर्श गुणों को अपनाते हैं, वे आर्य कहलाते हैं। इसके विपरीत, जो व्यक्ति दृष्ट कर्मों में लिप्त होते हैं, उन्हें दस्यु कहा जाता है।

आर्यों के लक्षण

आर्य" किसी एक देश या जाति तक सीमित नहीं है। इस शब्द का प्रयोग वेदों में श्रेष्ठ, आदर्श और उच्च गुणों से संपन्न पुरुषों के लिए किया गया है। चाहे कोई किसी भी आया जाति से क्यों न हो, अगर वह आदर्श आचरण और सदगुणों का पालन करता है तो उसे "आर्य" कहा जाता है।

वेदों में आर्य का महत्व

वेदों में "आर्य" शब्द का उल्लेख एक विशेष आदर और सम्मान के साथ हुआ है। ऋग्वेद (मंडल 4, सुक्त 26, मंत्र 2) में ईश्वर स्वयं कहते हैं: "अहम् भूमिमद्यम आर्याय" अर्थात, "मैं यह भूमि आर्यों को देता हूं।" यह आर्यत्व की सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता को दर्शाता है। आर्य कभी भी कायरता का परिचय देकर दस्युओं से छिपते नहीं, बल्कि वे सदा साहस और नैतिकता के प्रतीक रहे हैं।

महाकाव्यों में आर्य का प्रयोग

आर्य शब्द केवल वेदों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि महाकाव्य जैसे महाभारत और रामायण में भी इसका कई स्थानों पर उल्लेख मिलता है। माता सीता भगवान राम को आर्यपुत्र कहकर संबोधित करती हैं, जो उनके उच्च आदर्शों और गुणों की प्रतीक है। इसी प्रकार, महाभारत में द्रौपदी और भगवान कृष्ण भी अर्जुन को "आर्यपुत्र" के रूप में संबोधित करते हैं।

आर्यः एक गुण, एक आदर्श

हमारे इतिहास और शास्त्रों में "आर्य" शब्द का विस्तृत वर्णन मिलता है। आर्य होने का अर्थ है श्रेष्ठ विचारों, उत्तम आचरण और उत्कृष्ट कर्मों को अपनाना। इसके विपरीत, जो लोग इन गुणों का त्याग करते हैं. उन्हें दस्यु या अनार्य कहा जाता है। आर्यत्व का मापदंड सदैव गुणों और कर्मों पर आधारित होता है, न कि किसी जाति धर्म या जन्म पर।

ईश्वर का उपदेशः आर्यत्व का मार्ग

ऋग्वेद (9.63.5) में ईश्वर हमें स्पष्ट रूप से उपदेश देते हैं:

"इन्द्रं वर्धनतो अप्सुरः कृत्वन्तो विश्वमार्यम् अपघ्नन्तो अरावणः।" अपना ऐश्वर्य, धन, संपदा और बल को बढ़ाओ, और फिर समस्त संसार को आर्य (श्रेष्ठ) बनाओ। जो दुष्ट और राक्षसी प्रवृत्तियां इस मार्ग में बाधाएं हैं, उनका सर्वनाश करो।

इस मंत्र से स्पष्ट होता है कि हम सभी आर्यवंश की संतानें हैं। हमारे पूर्वजों ने श्रेष्ठ आचरण, उदारता और नैतिकता का पालन किया, जिससे वे आर्य कहलाए। लेकिन कालांतर में, हमने उन महान कर्मों और आदर्शों को त्याग दिया और दुष्ट प्रवृत्तियों को अपना लिया। यही कारण है कि आज "आर्य" कहलाने के योग्य कोई व्यक्ति ढूंढना दुर्लभ हो गया है। आर्यत्व से दूर होने का मूल कारण हमारे वैदिक शास्त्रों और शिक्षाओं से विमुख होना है। वैदिक ज्ञान, जो कभी हमारे जीवन का आधार था, उसका अध्ययन और पालन धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है। इसी कारण से हम अपने मूल आदर्शों और संस्कारों से भटक गए हैं। यदि हमें फिर से आर्य बनना है, तो हमें पुनः वेदों और वैदिक ग्रंथों का गहन अध्ययन और पालन करना होगा, ताकि हम अपने श्रेष्ठ कर्मों और गुणों को पुनः प्राप्त कर सकें।

आर्यों की प्रारंभिक उत्पत्ति

आदि सृष्टि के आरंभ में, जब ईश्वर ने मनुष्य को ज्ञान प्रदान किया, वह संस्कृत भाषा में वेदों का ज्ञान था। यही कारण है कि सभी वैदिक शास्त्रों की भाषा संस्कृत है, और यह माना जाता है कि संसार की सभी भाषाओं की जननी संस्कृत ही है। इसी के अनुसार, आर्यों की प्रारंभिक भाषा भी संस्कृत थी। संसार की उत्पत्ति के समय सर्वप्रथम मानव ने ने त्रिविष्टप, अर्थात वर्तमान तिब्बत, में जन्म लिया। ईश्वर ने सबसे पहले आर्यों को वेदों का ज्ञान दिया, और तभी से हमारे ऋषि-मुनियों ने पुरुषार्थ से वैदिक ग्रंथों की रचना आरंभ की।

वेदों से विज्ञान और ज्ञान का प्रसार

आज संसार में जितने भी विद्याएं और ज्ञान की धाराएं हैं, उनका मूल वेदों में ही निहित है। समय के साथ जब मानव समाज में आपसी वैमनस्य और संघर्ष बढ़ा, तब आर्य 225

और अनार्य के बीच द्वंद प्रारंभ हुआ। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप अनार्यों को समाज देबहिष्कृत कर दिया गया, और वे विभिन्न स्थानों पर बसने लगे। इसके बाद आर्य भी अन्य क्षेत्रों की ओर बढ़ने लगे, और भारत की भूमि का नाम आर्यों के बसने के कारण "आर्यवर्त" पड़ा।

आर्यों का विस्तार और भूगोलिक परिवर्तन

आर्यों के परिप्रेक्ष्य में, जो लोग दुष्ट प्रवृत्तियों वाले थे, वे संसार के अन्य हिस्सों जैसे चीन, अमेरिका, अफ्रीका आदि में बस गए। समय के साथ, भौगोलिक स्थितियों के प्रभाव के कारण उनके रंग, रूप और शारीरिक संरचना में परिवर्तन आने लगा। जब मानव समाज में भोग-विलास और प्रमाद का उदय हुआ, तब वैदिक शिक्षा का ह्रास होना शुरू हुआ। जैसे-जैसे भोगवाद बढ़ता गया, आर्यों ने आर्यवर्त से विमान आदि साधनों द्वारा अन्य देशों, विशेषकर यूरोप और अन्य पश्चिमी क्षेत्रों की यात्रा की। कई आर्य - अन्य देशों में जाकर बस गए और वहां की सभ्यताओं का हिस्सा बन गए। इस प्रवृत्ति से आधुनिक समाज का निर्माण हुआ।

आर्य बाहर से नहीं, यहीं के थे

 इस प्रक्रिया से यह स्पष्ट होता है कि आर्य कहीं बाहर से आकर भारत में नहीं बसे थे, बल्कि आर्यवर्त (भारत) से ही लोग धीरे-धीरे अन्य देशों में जाकर बसे। इस तथ्य के आधार पर, यह सिद्ध होता है कि आर्यों की उत्पत्ति और प्रसार भारत से ही हुआ, और विभिन्न देशों में जाकर वे वहां की सभ्यता और समाज का हिस्सा बने।

आर्यव्रत से भारत तक की यात्रा

महाभारत के आदि पर्व में वर्णित कथा के अनुसार, यह मान्यता है कि ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की पुत्री शकुंतला का विवाह पुरुवंशी राजा दुष्यंत से हुआ था। इनके पुत्र भरत, जो एक पराक्रमी और यशस्वी राजा थे, के नाम पर इस भूमि का नाम "भारत" पड़ा। राजा भरत के साहस और नेतृत्व के कारण यह भूमि धीरे-धीरे "भारतवर्ष" के नाम से प्रसिद्ध हो गई। कवि कालिदास के महाकाव्य अभिज्ञानशाकुंतलम् में भी इसका उल्लेख मिलता है, जो इस नाम की उत्पत्ति का समर्थन करता है।

इत्सिंग का यात्रा वृतांत: भारत को आर्यदेश कहा गया

सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध चीनी यात्री इन्सिंग ने अपने यात्रा वृतांत "इत्सिंग का भारत" (पृष्ठ 75) में उल्लेख किया है कि उस समय मध्य एशिया के लोग इस देश को"हिंद" कहते थे। हालांकि भारत में इस नाम का कोई प्रचलन नहीं था। इत्सिंग के अनुसार, इस भूमि का वास्तविक नाम आर्यदेश, ब्रह्मदेश, और जम्बुद्वीप था। उन्होंने कहा कि भारत के निवासियों को "हिंद" शब्द का कोई ज्ञान नहीं था, और उस समय यह भूमि "आर्यदेश" के नाम से जानी जाती थी।

"हिंदू" और "इंडिया" की उत्पत्ति

भारत का नाम "हिंद" और "इंडिया" तब प्रसिद्ध हआ जब मुस्लिम आक्रमणकारियो और अन्य बाहरी शक्तियों ने इस पर आक्रमण किया। फारसी आक्रमणकारियों ने इस भूमि को हिंदू कहा, जबकि यूनानी इसे इंडो के नाम से जानते थे। ये दोनों नाम "सिंधु नदी के अपभ्रंश माने जाते हैं, जो कालांतर में "हिंदू" और "इंडिया" में बदत गए।

गुलामी का युग और नामकरण में परिवर्तन

मुगल और ब्रिटिश शासन के दौरान, भारत का नाम धीरे-धीरे परिवर्तित हुआ। पहले जिसे "आर्यदेश" कहा जाता था, वही भूमि मुस्लिम आक्रमण के बाद " हिंदुस्तान के नाम से जानी जाने लगी। अंग्रेजों के आगमन के बाद, इस भूमि का नाम "इंडिया" और इसके निवासियों को इंडियन कहा जाने लगा।

आर्य से हिंदू तक का सफर

भारत की इस यात्रा में "आर्य" शब्द, जो श्रेष्ठ गुणों और सभ्यता का प्रतीक था, धीरे धीरे "हिंदू" में बदल गया। जहां कभी यह भूमि आर्य संस्कृति और वैदिक ज्ञान की ध्वजवाहक थी, वहीं आक्रमणों और विदेशी प्रभाव के कारण इसे "हिंदू" और फिर "इंडिया" के नाम से पहचाना जाने लगा। यह नामकरण का बदलाव हमारी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण पहलू है।

आर्यन आक्रमण सिद्धांतः एक कपोल कल्पित कहानी

Aryan Invasion Theory (आर्यन आक्रमण सिद्धांत) पूरी तरह से काल्पनिक और मिथ्या पर आधारित है। इस सिद्धांत के पीछे एक गहरा षड्यंत्र काम कर रहा है जिसका प्रमुख उद्देश्य भारत को नीचा दिखाना और जाति-पाति में बांटकर समाज को विभाजित करना है। इस सिद्धांत का आधार केवल भ्रम फैलाना है, ताकि भारतीय समाज अपनी प्राचीन सभ्यता और एकता से दूर हो जाए। आर्यन आकमा थे, जिससे सिद्धांत ने यह भ्रम फैलाने की कोशिश की है कि आर्य बाहरी आक्रांता थे, भारतीय समाज को भीतर से तोडने का प्रयास किया गया। जब हिंद समाज या 

सच्चाई समझेगा कि वे आर्यों की संतान हैं और उनकी संस्कृति का आधार वेदों में अहित है, तो उन्हें एक होने से कोई भी शक्ति रोक नहीं सकेगी

आने वाली पीढी को सच बताने की आवश्यकता

हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारी आने वाली पीढी इस झूठे सिद्धांत से भ्रमित हो। उन्हें यह बताना अनिवार्य है कि हमारे पूर्वज कितने वैज्ञानिक, उन्नतिशील और यो महान थे। संसार में जितने भी महत्वपूर्ण आविष्कार हुए हैं, उनका मूल वेदों में है। इंदों ने केवल धार्मिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शन ही नहीं दिया, बल्कि वैज्ञानिक और कामपोद्योगिकी के क्षेत्र में भी गहरा योगदान दिया है।

हमारी आने वाली पीढ़ी को यह जानने का पूर्ण अधिकार है कि वे एक महान संस्कृति के ध्वजवाहक हैं। उन्हें अपनी जड़ों और सभ्यता पर गर्व होना चाहिए, और यह समझना चाहिए कि उनके पूर्वजों ने संसार के ज्ञान और विज्ञान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हमें इस बात का ध्यान रखना है कि यह सच्चाई नई पीढ़ी तक पहुंचे और के गर्व के साथ अपनी सांस्कृतिक धरोहर को आगे बढ़ाएं।



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