आज के समाज में विवाह का मूल उद्देश्य केवल जीवनसाथी का चयन नहीं, बल्कि भोग-विलास, मोह और सांसारिक सुखों से जुड़ चुका है। सही अर्थ में हम विवा...
आज के समाज में विवाह का मूल उद्देश्य केवल जीवनसाथी का चयन नहीं, बल्कि भोग-विलास, मोह और सांसारिक सुखों से जुड़ चुका है। सही अर्थ में हम विवाह नहीं, बल्कि संगति का चयन करते हैं, क्योंकि दिन-रात, सुबह-शाम हमें अपने चुने हुए जीवनसाथी की संगति में ही रहना होता है। शास्त्रों में कहा गया है कि "जैसी संगति करोगे, वैसे बन जाओगे।" इसलिए विवाह से पहले सही जीवनसाथी का चुनाव करना बेहद महत्वपूर्ण है, ताकि दोनों के गुण और व्यवहार में सामंजस्य हो। विपरीत गुणों वाले व्यक्तियों के बीच संगति का परिणाम विनाशकारी हो
विवाह मानव जीवन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्राचीन सामाजिक संस्थान है। इसे संसार की लगभग सभी सभ्यताओं में विशेष स्थान प्राप्त है। विवाह की व्यवस्था समाज, परिवार और व्यक्ति के जीवन में कई महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाती है। परंतु जैसे-जैसे समय बदला है, विवाह को लेकर भी कई प्रश्न उठने लगे हैं- क्या विवाह उचित है या अनुचित? इस पर विचार करना आवश्यक है कि विवाह के सामाजिक धार्मिक और व्यक्तिगत महत्व क्या हैं. और इसके पक्ष एवं विपक्ष में कौन से तर्क दिए जा सकते हैं।
विवाहः सामाजिक दृष्टिकोण से
सामाजिक दृष्टिकोण से विवाह को एक ऐसा संस्थान माना जाता है जो परिवार की नींव रखता है। परिवार समाज का सबसे छोटा और महत्वपूर्ण इकाई होती है, और विवाह से ही परिवार की संरचना होती है। यह समाज में अनुशासन, नैतिकता और परंपराओं को बनाए रखने में सहायक होता है।
विवाह सामाजिक ढांचे को स्थिरता और संतुलन प्रदान करता है। यह परिवार को एकजुट रखता है और समाज में नैतिक मूल्यों की रक्षा करता है। विवाह के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पारिवारिक मूल्य, संस्कार और परंपराएं स्थानांतरित होती हैं। विवाह के द्वारा दो परिवारों का मिलन होता है, जिससे आपसी सहयोग और संबंध बढ़ते हैं। यह समाज में एकजुटता को प्रोत्साहित करता है परंतु कई बार विवाह व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध केवल समाज की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप लोग जीवनभर असंतोष का सामना करते हैं। कुछ व्यक्तियों के लिए विवाह एक ऐसी संस्था बन जाती है जिसमें वे स्वयं को बंधा हुआ अनुभव करते हैं। यह उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और विकास में बाधा डाल सकता है।
विवाहः धार्मिक दृष्टिकोण से
सनातन धर्म और अन्य धार्मिक परंपराओं में विवाह को एक पवित्र बंधन माना गया है। इसे केवल शारीरिक या सामाजिक संबंध नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक यात्रा के रूप में देखा जाता है। सनातन धर्म में विवाह को 'संसार धर्म' कहा गया है, जिसमे व्यक्ति अपने गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है और धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयास करता है। विवाह को धर्म, अर्थ और संतान की प्राप्ति का माध्यान माना गया है। इसके द्वारा व्यक्ति अपने कुल की वृद्धि और धर्म का पालन कर सकत है परंतु कुछ व्यक्तियों के लिए धार्मिक रीति-रिवाज और विवाह से जुड़े कर्तव्यों का पालन बोझिल हो सकता है। इससे विवाह एक अनिवार्य सामाजिक और धार्मिक बंधन के रूप में अनुभव हो सकता है। कभी-कभी विवाह को अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य मानकर व्यक्ति इसे केवल एक रस्म के रूप में देखता है, जबकि उनका मन इस संस्था को स्वीकार नहीं करता।
विवाहः व्यक्तिगत दृष्टिकोण से
व्यक्तिगत जीवन में विवाह का स्थान बेहद महत्वपूर्ण है। यह एक ऐसा बंधन होता है जो दो व्यक्तियों के बीच शारीरिक, मानसिक, और भावनात्मक जुड़ाव का प्रतीक है।
विवाह से व्यक्ति को जीवन के कठिन समय में एक साथी का साथ मिलता है जो उनके • सुख दुख में साथ खड़ा रहता है। इससे मानसिक और भावनात्मक संतुलन बना रहता है। विवाह से दोनों व्यक्ति जीवन की जिम्मेदारियों को साझा करते हैं, जिससे व्यक्तिगत तनाव कम हो सकता है और जीवन में संतुलन बना रह सकता है परंतु विवाह कई बार व्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित कर देता है। हर व्यक्ति के जीवन के निर्णयों में एक अन्य व्यक्ति का हस्तक्षेप आ जाता है, जिससे व्यक्तिगत इच्छाओं का हनन हो सकता है। सभी विवाह सफल नहीं होते। अगर दोनों व्यक्तियों के बीच - तालमेल नहीं हो पाता, तो यह तनावपूर्ण स्थिति में बदल सकता है, जिससे मानसिक - स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
मनुष्य जन्म और समय की सीमितता
मनुष्य जन्म दुर्लभ है और यह हमें तपस्या के फलस्वरूप प्राप्त हुआ है। इसके साथ ही हमारे पास समय भी सीमित है, क्योंकि जन्म के साथ मृत्यु भी निश्चित हो जाता है। - हमारे शास्त्रों में चार आश्रमों का उल्लेख किया गया है, जो मनुष्य जीवन की यात्रा को - दर्शाते हैं: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। यदि आपकी रुचि ज्ञान और सत्य की खोज में है, तो शास्त्रों के अनुसार आपको ब्रह्मचर्य से सीधे सन्यास की ओर बढ़ना चाहिए परंतु यदि आप गृहस्थ जीवन में रुचि रखते हैं, तो आपको इन चारों आश्रमों से होकर गुजरना होगा। गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रम में अधिकांश समय भौतिक - इच्छाओं की पूर्ति और दायित्वों को निभाने में व्यतीत हो जाता है, जिससे मोक्ष का = मार्ग कठिन हो जाता है।
विवाहः वर-वधु का सही चुनाव
शास्त्रों में विवाह की निषेधाज्ञा नहीं है, बल्कि यह कहा गया है कि उचित पात्र मिलने पर विवाह अवश्य करना चाहिए। अगर योग्य वर न मिले, तो कन्या को जीवन भर पिता द्वारा भरण पोषण करने की भी आज्ञा दी गई है। यहां 'उचित' का अर्थ है कि वर-वधू के गुण, स्वभाव, चरित्र और जीवन के उद्देश्य एक समान हों। ऐसे मेल से ही गृहस्थ जीवन सुखी और सफल हो सकता है। आज के संदर्भ में देखा जाए तो वर के गृहस्थ जीवन में सुख-शांति से कोई संबंध नहीं है। यह सब अस्थायी है. आज है, कल नहीं। इसलिए विवाह करें, परंतु गलत विवाह करने से बचें।
विवाह करना या न करना पूरी तरह से व्यक्तिगत निर्णय है। यह निर्णय आपके जीवन के उद्देश्य और प्राथमिकताओं पर आधारित होना चाहिए। विवाह को उचित या अनुचित ठहराना व्यक्तिगत अनुभवों, समाज और संस्कृति के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। विवाह जीवन की एक ऐसी प्रक्रिया है जो सही परिस्थितियों में अत्यंत लाभकारी हो सकता है, लेकिन अगर यह केवल समाज के दबाव या धार्मि मान्यताओं के आधार पर किया जाता है, तो यह अनुचित भी हो सकता है। विवाह तभी सफल होता है जब यह दो व्यक्तियों की स्वेच्छा, प्रेम, और आपसी समझदारी पर आधारित हो। अतः यह कहना उचित होगा कि विवाह जीवन का एक अति महत्वपूर्ण अंग है, परंतु इसे चुनना या न चुनना प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्थिति पर निर्भर करता है।
मनुस्मृति में विवाह के आठ प्रकारों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
1. ब्राह्म विवाह (मनुस्मृति 3.27)
"प्रेक्ष्य दत्तं तु शीलाय वराय वधू सुताम्। अहुर्बह्यं तु तं धर्म्य दार कल्याणमुत्तमम् ॥"
अर्थः योग्य वर को, जो शीलवान हो और धर्म का पालन करता हो, कन्या का पिता अपनी पुत्री को सौंप देता है। इसे ब्राह्म विवाह कहा जाता है और इसे सबसे उत्तम तथा पवित्र विवाह माना गया है। इस विवाह में कोई धन या उपहार नहीं लिया जाता है, केवल कन्या का सौंपना ही विवाह होता है। इसे स्वयंवर विवाह भी कहा जाता है । जिसमें कन्या अपने लिए योग्य वर चुनने के लिए स्वतंत्र होती है।
2. दैव विवाह (मनुस्मृति 3.28)
यज्ञस्य ऋत्विज दत्त्वा स हविर्देवं समर्पयेत्। दैवं धर्म्य विदुर्ब्रह्मादृद्ध्वं धर्मेण प्राश्रयम् ॥"
अर्थः जब यज्ञ में पुरोहित को कन्या प्रदान की जाती है, तो उसे दैव विवाह कहा जाता है। इसे ब्राह्म विवाह के बाद दूसरा श्रेष्ठ विवाह माना गया है। इस प्रकार का विवाह धार्मिक क्रिया में भाग लेने वाले व्यक्ति के साथ किया जाता है।
3. आर्ष विवाह (मनुस्मृति 3.29)
"एकं गोमितुनं चैव यत् कश्चित् सम्प्रदायते। आर्षं धर्मं प्रचक्षते धर्मेण दार कल्याणम्॥"
अर्थ: इस विवाह में वर पक्ष द्वारा कन्या के पिता को एक जोडा गाय और बैल प्रदान किया जाता है। इसे आर्ष विवाह कहा जाता है। इस प्रकार के विवाह में कन्या के पिली को आर्थिक लाभ नहीं दिया जाता है, बल्कि एक प्रतीकात्मक भेंट दी जाती है।231
4.प्रजापत्य विवाह (मनुस्मृति 3.30)
•कन्यामर्थे प्रतिगृह्णियात् पतिरित्यब्रवीत् सुताम्। प्रजापत्यं तु धर्मं विद्धि धर्मस्य स्थापनाम् ॥"
अर्थ: इस विवाह में कन्या के पिता वर को यह कहते हुए कन्या प्रदान करते हैं कि वह धर्म का पालन करते हुए कन्या के साथ जीवन यापन करे। इसे प्राजापत्य विवाह कहा जाता है और यह विवाह पति-पत्नी के समान कर्तव्य और दायित्व पर आधारित होता है।
5. असुर विवाह (मनुस्मृति 3.31)
•अर्थे गृहित्वा यद्वित्तं यत्कन्यां संप्रयच्छति। असुरं धर्मं संज्ञातं तद्विवाहं स्मृतं बुधैः ॥"
अर्थः इस विवाह में वर द्वारा कन्या के पिता को धन देकर कन्या का वरण करना आसुर विवाह कहलाता है। इसे अधम विवाह माना गया है क्योंकि यह आर्थिक लेन-देन पर आधारित होता है, जो वैदिक दृष्टि से उचित नहीं माना गया है।
6. गंधर्व विवाह (मनुस्मृति 3.32)
कामात् संस्पृष्टयोर्द्वयोः समन्वेता प्रजायते। गंधर्व तु विवाहं तं धर्म्य विदुरशुद्धये।”
अर्थः परस्पर प्रेम और सहमति से वर और कन्या का विवाह गंधर्व विवाह कहलाता है। इसमें माता-पिता या समाज की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती। यह विवाह पूरी तरह से प्रेम पर आधारित होता है। लव मैरिज इसी विवाह का उदाहरण है।
7.राक्षस विवाह (मनुस्मृति 3.33)
सिंहव्रतं बलद्यत्र कन्यां हृत्वा वधुरबुधाः। राक्षसं विवाहं तु तं वेदवक्ता प्रचक्षते ॥"
अर्थः बलपूर्वक कन्या का हरण करके विवाह करना राक्षस विवाह कहलाता है। इसे वैदिक समाज में अस्वीकार्य और अधम विवाह माना गया है, क्योंकि इसमें कन्या की इच्छा का कोई स्थान नहीं होता है। 8. पैशाच विवाह (मनुस्मृति 3.34)
8 "पैशाच विवाह
सुप्तं मत्तां वा बलं वा स्त्रीं न ज्ञायते यथा। पैशाचं तु विवाहं तं धर्म नोपदिश्यते॥"
अर्थ: इस विवाह में नशे की अवस्था में या अज्ञानता में कन्या का वरण किया जाता है।
इसे पैशाच विवाह कहा जाता है और यह सबसे अधम और निंदनीय विवाह माना गया है। वैदिक समाज में इसे पूर्णतः निषिद्ध और अनुचित माना गया है।
इन आठ विवाह प्रकारों में पहले चार (ब्राह्म, दैव, आर्ष, और प्राजापत्य) को धर्मसम्मत और श्रेष्ठ माना गया है, जबकि अंतिम चार (आसुर, गंधर्व, राक्षस, और पैशाच) को निम्न और अस्वीकार्य माना गया है।
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