भारत में गुरु का स्थान सदियों से सर्वोपरि रहा है। "गु" शब्द का अर्थ होता है अंधकार और "रु" शब्द का अर्थ होता है अंधकार क...
भारत में गुरु का स्थान सदियों से सर्वोपरि रहा है। "गु" शब्द का अर्थ होता है अंधकार और "रु" शब्द का अर्थ होता है अंधकार को दूर करने वाला, उसे हटाने वाला इसलिए गुरु शब्द का अर्थ होता है अज्ञानता से ज्ञान की ओर ले जाने वाला, असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला। "शिक्षा दान महादान" यह केवल एक साधारण वाक्य नहीं, बल्कि हमारी समृद्ध शिक्षा और संस्कृति का प्रतिबिंब है। यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है, जिसने भारत को विश्व गुरु का गौरव दिलाया। हमारे देश ने सदियों से शिक्षा और शिक्षण को पवित्र माना, और इसका प्रचार-प्रसार पूरे विश्व में किया। प्राचीन आर्यवर्त (आज का भारत) में वैदिक शास्त्रों के अध्ययन का दौर था। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के तहत, गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से वेदों की शिक्षा घर-घर तक पहुंचाई जाती थी। यह समय ऐसा था जब विश्व के अधिकांश भाग शिक्षा से अभिज्ञ थे, जबकि भारत ज्ञान के महासागर में गोते लगा रहा था। उस समय, शिक्षा केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं थी, बल्कि जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित करती थी।
प्राचीन विश्वविद्यालयों का वैश्विक आकर्षण
तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में दुनियाभर से छात्र वेद, नीति शास्त्र, गणित, सैन्य विज्ञान, ज्योतिष, भूगोल और विज्ञान के अन्य विषयों को सीखने आते थे। ये विश्वविद्यालय ज्ञान का केंद्र थे, जहाँ से भारत ने पूरे विश्व में शिक्षा का प्रसार किया। इस दौरान, भारत की शिक्षा प्रणाली वैदिक काल से लेकर मौर्य काल तक बेहद उन्नत और संगठित थी। भारत को इस समय मय में केवल एक देश के रूप में नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के शिक्षक के रूप में देखा जाता था। भारत ने न केवल भौतिक ज्ञान, बल्कि आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा का भी प्रसार किया। यह वही ज्ञान था, जिसने पूरे विश्व को आलोकित किया और भारत को 'विश्व गुरु' के रूप में प्रतिष्ठित किया।
भारत पुनः विश्व गुरु कैसे बनेगा?
भारत को एक बार फिर विश्व गुरु के रूप में स्थापित करने का प्रश्न विचारणीय है। इस उत्तर को समझने के लिए हमें यह जानना आवश्यक है कि हमारे प्राचीन ऋषिः मुनियों ने इतना विस्तृत और गहन ज्ञान कैसे अर्जित किया था। उनके ज्ञान का उद्देश्य मात्र भौतिक समृद्धि नहीं था, बल्कि इसके परे एक ऐसी समृद्धि थी जो मानव जीवन को पूर्ण बनाती है। यह वही समृद्धि है, जिसे हमारे पूर्वजों ने समझा और समस्त हो इसका पाठ पढ़ाया। वेदों को ईश्वर की वाणी माना गया है. और इन्हीं वेदों के अध्ययन, चिंतन और पठन-पाठन से हमारे ऋषि-मुनियों ने यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया। रेडों में सष्टि के कण-कण का ज्ञान समाहित है, जिसने भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान का एक सामंजस्य स्थापित किया। यह ज्ञान केवल भौतिक उन्नति तक सीमित नहीं था बल्कि जीवन की सफलता और समृद्धि के लिए आध्यात्मिक मार्गदर्शन भी प्रदान करता था। ऋषियों ने भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान को समान महत्व दिया। वे जानते थे कि जीवन में केवल भोग और विलास पर्याप्त नहीं है। सच्ची समृद्धि और उन्नति के तिए आध्यात्मिक ज्ञान आवश्यक है। इस संतुलन को समझते हुए वे त्यागपूर्ण जीवन तेथे, जहाँ भोग भी संयमित था और जीवन का उद्देश्य भी स्पष्ट था। जीते थे,
कालांतर में जब मनुष्य सांसारिक सुखों और विलास में लिप्त होने लगा, तब वैदिक ज्ञान और गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का हास्य होने लगा। समाज में अज्ञानता और भेदभाव ने अपने पैर पसार लिए, जिसके परिणामस्वरूप जातिवाद, छुआछूत, और हिंसा जैसी कुप्रथाएँ फैल गईं। इसके बाद मुगलों और अंग्रेजों के शासन ने भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को और भी क्षीण कर दिया। भारत के विश्व गुरु बनने की राह तब तक कठिन है जब तक हम आपसी मतभेद, जातिवाद और छुआछूत जैसी बाधाओं को नहीं मिटाते। केवल औपचारिक शिक्षा से विद्वत्ता प्राप्त नहीं की जा सकती। विद्वान बनने के लिए यथार्थ ज्ञान की आवश्यकता है, जो केवल हमारे वैदिक शास्त्रों से प्राप्त हो सकता है। भारत तभी पुनः विश्व गुरु बन सकता है जब हम अपने वैदिक ज्ञान की ओर लौटें और उसका पठन-पाठन गुरुकुल पद्धति के माध्यम से प्रत्येक घर में सुनिश्चित करें। यह ज्ञान हमें न केवल भौतिक सफलता की ओर ले जाएगा, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग भी दिखाएगा। जब भारत अपनी प्राचीन शिक्षा प्रणाली और जीवन के संतुलित दृष्टिकोण को पुनस्र्थापित करेगा, तभी वह एक बार फिर विश्व गुरु के रूप में उभर सकेगा।
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