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धन को एक साधन के रूप में देखा गया, न कि जीवन का अंतिम उद्देश्यधन अर्जन के पांच वैदिक नियम

धन इस संसार में शरीर को चलाने के लिए आवश्यक है, परन्तु जब यह आवश्यकता लालच में बदल जाती है, तो सर्वनाश की नींव रखी जाती है। आज का मनुष्य धर्...


धन इस संसार में शरीर को चलाने के लिए आवश्यक है, परन्तु जब यह आवश्यकता लालच में बदल जाती है, तो सर्वनाश की नींव रखी जाती है। आज का मनुष्य धर्म अधर्म, उचित-अनुचित, सत्य-असत्य का भेद भूल चुका है। समाज में भ्रष्टाचार, अनैतिकता और अन्याय का बोलबाला है, और इसका मूल कारण धन और संपत्ति का असमान वितरण है। धन को ही शक्ति का मापदंड मान लिया गया है, जिसके कारण मानव समाज नैतिकता की सीमाएं पार कर चुका है।

आर्य संस्कृति में धन को एक साधन के रूप में देखा गया, न कि जीवन का अंतिम उद्देश्य। वेदों और शास्त्रों के अनुसार, जीवन का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति है, जो मर्यादाओं के भीतर रहकर ही संभव है। परंतु आज का समाज केवल अर्थ की लालसा में सीमाओं को भूल गया है, और इसी लालसा के कारण समाज में अराजकता और विनाश की संभावना बढ़ रही है।

धन अर्जन के पांच वैदिक नियम

धन कैसे उत्पन्न किया जाए, इस पर शास्त्रों ने स्पष्ट मार्गदर्शन दिया है। इन नियमों क पालन करते हुए ही धन अर्जन करना उचित और लाभकारी माना गया है।

 पहला नियम: धन अर्जन से दसरों को कष्ट न हो जब हम धन अर्जि करें, तो इसका ध्यान रखें कि हमारे कार्यों से किसी भी प्राणी को दुख कष्ट न पहुंचे। दूसरों के हितों का सम्मान करना अनिवार्य है।233

दूसरा नियम: अपने शरीर को कष्ट न हो धन अर्जन के लिए अपने स्वास्थ्य को अनदेखा न करें। स्वस्थ शरीर ही जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है। अतः, संतुलन बनाए रखना आवश्यक है ताकि शरीर भी स्वस्थ रहे और धन भी अर्जित होता रहे।

 तीसरा नियमः परिश्रम और पुरुषार्थ से अर्जित धन जो धन आप स्वयं के परिश्रम और पुरुषार्थ से कमाते हैं, वही सही मायनों में आपको संतुष्टि और समृद्धि प्रदान करेगा। दूसरों के धन की लालसा न करें और उसी में जीवनयापन करें, जो आप स्वाभाविक रूप से अर्जित कर सकते हैं। सत्य के पथ पर अर्जित किया गया धन ही में संतुष्ट रहे।

चौथा नियमः अधर्म से धन अर्जित न करें धन अर्जन के मार्ग धर्म संगत होना चाहिए। किसी भी प्रकार का अधर्म या अनैतिक कार्य से अर्जित किया गया धन लंबे समय तक टिकता नहीं, और अंत में वह व्यक्ति को विनाश की ओर ले जाता है असंतोष और दुख का कारण भी होता है। धर्म के मार्ग पर चलकर अर्जित धन ही स्थायी और समृद्धिकारक होता है।

 पांचवां नियमः धन अर्जन से स्वाध्याय में बाधा न हो धन अर्जन इतना महत्वपूर्ण न हो जाए कि आप स्वाध्याय, सत्संग, और वेद-शास्त्रों का अध्ययन भूल जाएं। जीवन का संतुलन बनाए रखें, ताकि मानसिक और आध्यात्मिक विकास भी साथ-साथ हो सके।

इन पांचों नियमों का पालन करके अर्जित धन ही वास्तविक "अर्थ" कहलाता है। जो न इन नियमों के विरुद्ध अर्जित किया जाता है, वह अनर्थकारी होता है। अतः हमें गलत मार्गों से अर्जित धन का त्याग कर, सही मार्ग से ही धन अर्जन का प्रयास करना बाहिए।



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